‘अनुभववाद’ पर टिप्पणी

अनुभववाद एक ऐसा दार्शनिक दृष्टिकोण है, जो ज्ञान की प्राप्ति में अनुभव को प्रमुख आधार मानता है। इसे अंग्रेजी में Empiricism कहा जाता है। इस विचारधारा के अनुसार, मनुष्य जो कुछ भी जानता है या जान सकता है, उसका आधार प्रत्यक्ष अनुभव, संवेदना और इंद्रियबोध होता है, न कि केवल तर्क, बुद्धि या पूर्व-निर्धारित सिद्धांत। अनुभववाद में ज्ञान का स्रोत व्यक्ति का बाह्य जगत से संपर्क और उस पर आधारित अनुभूतियाँ होती हैं।

अनुभववाद

अनुभववाद का विकास मुख्यतः पश्चिमी दर्शन में हुआ, जहाँ जॉन लॉक (John Locke), डेविड ह्यूम (David Hume), और जॉर्ज बर्कले (George Berkeley) जैसे विचारकों ने इसे विशेष रूप से परिभाषित और व्याख्यायित किया। जॉन लॉक का यह कथन प्रसिद्ध है कि मनुष्य का मस्तिष्क जन्म के समय एक कोरी पट्टी (tabula rasa) होता है, जिस पर सारे विचार और ज्ञान अनुभव के माध्यम से अंकित होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जन्म के समय मनुष्य के पास कोई अंतर्निहित ज्ञान नहीं होता, और वह केवल इंद्रिय अनुभवों के माध्यम से ज्ञान अर्जित करता है।

अनुभववाद, तर्कवाद (Rationalism) के विपरीत खड़ा होता है, जो यह मानता है कि ज्ञान का स्रोत मुख्यतः तर्क और विवेक होता है। जबकि अनुभववाद कहता है कि तर्क केवल अनुभव से प्राप्त जानकारी को व्यवस्थित करने का उपकरण भर है। अनुभव के बिना तर्क या बुद्धि किसी प्रकार का सार्थक ज्ञान नहीं दे सकती।

अनुभववाद का प्रभाव केवल दर्शन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, शिक्षा और साहित्य में भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा। आधुनिक विज्ञान का आधार ही अनुभववाद है, क्योंकि वैज्ञानिक पद्धति अवलोकन, प्रयोग और परीक्षण पर आधारित होती है। विज्ञान में किसी भी सिद्धांत को तभी स्वीकार किया जाता है जब वह अनुभवसिद्ध हो — अर्थात् जिसे प्रयोग या अवलोकन से प्रमाणित किया जा सके।

अनुभववाद शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षाशास्त्री जॉन डेवी (John Dewey) जैसे विचारकों ने यह कहा कि बच्चों को केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखने का अवसर मिलना चाहिए। आज की प्रायोगिक शिक्षण विधियाँ इसी अनुभववादी दृष्टिकोण पर आधारित हैं। ‘सीखना करते हुए’ (learning by doing) जैसे विचार इसी सोच से निकले हैं।

हिंदी साहित्य और भाषा की चर्चा करते समय भी अनुभववाद का उल्लेख कई संदर्भों में किया जाता है। साहित्य की रचना में लेखक के व्यक्तिगत अनुभव, सामाजिक जीवन की झलकियाँ, और वातावरण का प्रभाव महत्वपूर्ण होता है। कविता, कहानी, उपन्यास आदि में यथार्थ की प्रस्तुति और जीवन की बारीक अनुभूतियाँ अनुभववाद के ही प्रतिफल हैं। मुंशी प्रेमचंद का साहित्य इसका एक बड़ा उदाहरण है, जहाँ अनुभव आधारित सामाजिक यथार्थ दिखाई देता है।

समकालीन सृजनात्मक लेखन में अनुभववाद का प्रभाव और भी स्पष्ट है, जहाँ लेखक अपने जातीय, लिंग, वर्ग, और सांस्कृतिक अनुभवों को स्वर देता है। दलित साहित्य, महिला लेखन, आदिवासी लेखन — ये सब अनुभववाद के गहरे असर को दर्शाते हैं। इनमें रचनाकार अपनी प्रत्यक्ष पीड़ा, संघर्ष और अनुभव को रचना में पिरोता है, जो किसी शुद्ध कल्पना या तर्क से संभव नहीं होता।

हालाँकि अनुभववाद की कुछ सीमाएँ भी होती हैं। केवल अनुभव पर आधारित ज्ञान कभी-कभी व्यक्तिपरक हो सकता है और उसमें सामान्यीकरण की कठिनाई होती है। लेकिन इसके बावजूद यह दृष्टिकोण इस बात पर ज़ोर देता है कि जो भी ज्ञान हम ग्रहण करते हैं, वह जीवन से जुड़ा हो, उसे प्रत्यक्ष रूप से महसूस किया जा सके, और वह केवल सैद्धांतिक न रह जाए।

इस प्रकार, अनुभववाद केवल एक विचारधारा नहीं, बल्कि एक दृष्टिकोण है, जो ज्ञान, शिक्षा, साहित्य और जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रत्यक्ष अनुभव को मूल मानकर सोचने की प्रेरणा देता है।

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