परिचय:
आचार्य भामह संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रारंभिक युग के एक महत्वपूर्ण आचार्य थे। उन्हें संस्कृत काव्यालोचना का प्रथम स्वतंत्र आचार्य माना जाता है। उनका ग्रंथ ‘काव्यालंकार’ काव्यशास्त्र का पहला व्यवस्थित और मौलिक ग्रंथ माना जाता है, जिसमें काव्य की परिभाषा, प्रयोजन, गुण, दोष, अलंकार आदि की स्पष्ट विवेचना की गई है।
भामह का समय लगभग 7वीं शताब्दी माना गया है, और उन्हें नवकाव्य परंपरा का प्रारंभकर्ता भी माना जाता है।
काव्य की परिभाषा:
भामह ने काव्य की परिभाषा दी—
“शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्”
अर्थात् जब शब्द और अर्थ का समुचित संयोग होता है, तभी काव्य की रचना होती है। उन्होंने स्पष्ट किया कि केवल अर्थ या केवल शब्द से काव्य नहीं बनता, दोनों की युगल उपस्थिति आवश्यक होती है।
काव्य प्रयोजन:
भामह के अनुसार, काव्य का उद्देश्य काव्यार्थ का बोध, मनोरंजन और प्रशंसा प्राप्त करना है। उन्होंने काव्य को कीर्ति का साधन कहा और बताया कि यह कवि को समाज में प्रतिष्ठा और यश दिलाता है। यह दृष्टिकोण भामह की सांसारिक दृष्टिकोण की ओर संकेत करता है।
काव्य हेतु:
भामह ने काव्य हेतु में प्रतिभा (प्रकृति), व्यवसाय (अभ्यास) और व्यासंग (लगन) को प्रमुख माना। उन्होंने कहा कि केवल स्वाभाविक प्रतिभा से काव्य नहीं रचा जा सकता, उसमें अभ्यास और गंभीर लगन भी होनी चाहिए।
उनका यह कथन प्रसिद्ध है—
“न कश्चिदप्रयत्नेन कवित्वेन प्रतिष्ठति।”
यानी, बिना प्रयत्न के कोई भी व्यक्ति कवि नहीं बन सकता।
(आचार्य भामह)
अलंकारवाद:
भामह को अलंकारवादी आचार्य माना जाता है। उनके अनुसार अलंकार ही काव्य की आत्मा है। उन्होंने कहा कि काव्य में शब्द और अर्थ की शोभा अलंकारों के माध्यम से बढ़ती है।
उन्होंने कई प्रकार के अलंकारों की पहचान की, जैसे — उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, विरोधाभास आदि। भामह ने लगभग 35 अलंकारों का वर्णन किया है।
उनका मत था कि यदि काव्य में अलंकार नहीं हैं, तो वह फीका और प्रभावहीन हो जाता है।
आचार्य भामह और दंडी का मतभेद:
भामह और दंडी के काव्यशास्त्रीय मतों में कई स्थानों पर भिन्नता देखी जाती है। जैसे –
- भामह के अनुसार काव्य की आत्मा अलंकार है, जबकि
- दंडी के अनुसार गुण काव्य की आत्मा है।
भामह ने काव्य में व्यक्तित्व और प्रभाव पर बल दिया, वहीं दंडी ने शैली और शुद्धता को अधिक महत्त्वपूर्ण माना।
(आचार्य भामह)
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