कबीर भारतीय समाज के उन अद्वितीय संत-कवियों में से हैं, जिनकी वाणी केवल आध्यात्मिक चिंतन तक सीमित नहीं रही, बल्कि उन्होंने अपने समय की सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक पाखंडों, जातिगत भेदभाव और स्त्री-विरोधी सोच पर खुलकर प्रहार किया। कबीर की सामाजिक चेतना उस युग की चेतना नहीं थी, जिसमें व्यक्ति मौन होकर अन्याय सहता था, बल्कि वह जागरूक, विद्रोही और सशक्त सामाजिक सोच का परिचायक थी। उन्होंने समाज के हर उस तत्व का विरोध किया जो मनुष्य को मनुष्य से अलग करता था। उनका काव्य किसी ग्रंथ या मंदिर तक सीमित नहीं था, वह सीधे जनता से संवाद करता था, समाज को आईना दिखाता था और उन्हें सोचने पर मजबूर करता था।
कबीर का युग सामाजिक दृष्टि से संक्रमण काल था। एक ओर ब्राह्मणवादी परंपराएं जड़ता में जकड़ी थीं, दूसरी ओर इस्लामी शासन का प्रभाव बढ़ रहा था। हिंदू और मुसलमान दोनों अपने-अपने धार्मिक कर्मकांडों में उलझे हुए थे। जातिवाद चरम पर था और स्त्रियों की स्थिति बहुत दयनीय थी। ऐसे समय में कबीर ने समाज की इन विसंगतियों को सीधा चुनौती दी और एक ऐसा समाज देखा जिसमें सभी मनुष्य समान हों, बिना किसी भेदभाव के। उनके समाज में प्रेम, करुणा, सत्य और सहजता की प्रधानता होनी चाहिए — यही उनकी सामाजिक चेतना की मूल भावना थी।
1. जातिप्रथा और ऊँच-नीच का विरोध
कबीर की सामाजिक चेतना का सबसे बड़ा पक्ष जातिप्रथा का विरोध है। वे जाति को मनुष्य की पहचान नहीं मानते थे। उनके अनुसार जन्म के आधार पर किसी को ऊँचा या नीचा कहना सरासर अन्याय है। कबीर ने लिखा:
“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥”
इस दोहे में वे स्पष्ट करते हैं कि व्यक्ति की जाति नहीं, उसका ज्ञान और आचरण मायने रखता है। उन्होंने यह बात इसलिए कही क्योंकि उस समय ब्राह्मण समाज अपने जन्म के आधार पर श्रेष्ठता का दावा करता था और शूद्रों को अपमानित किया जाता था। कबीर स्वयं एक जुलाहा (नीच मानी जाने वाली जाति) थे, परंतु उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दी और कहा कि ईश्वर सभी का है, वह किसी जाति का नहीं।
2. धार्मिक पाखंड का विरोध
कबीर ने केवल हिंदू धर्म के ब्राह्मणों को ही नहीं, बल्कि मुसलमानों के मौलवियों को भी नहीं छोड़ा। वे दोनों धर्मों में व्याप्त बाह्याचार, कर्मकांड और पाखंडों का विरोध करते हैं। कबीर का मानना था कि ईश्वर किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं है, बल्कि वह मनुष्य के भीतर है।
वे कहते हैं:
“माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर॥”
यहां वे उस धार्मिक आडंबर का मज़ाक उड़ाते हैं जिसमें व्यक्ति तो जप करता है, पर मन विकारों से भरा रहता है। कबीर धर्म को आंतरिक शुद्धता और प्रेम का मार्ग मानते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि:
“कांकर पाथर जोरी के मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा भया खुदाय॥”
इस दोहे में वे मुसलमानों की रीति का उपहास करते हैं कि पत्थरों से बनी मस्जिद पर चढ़कर जब अज़ान दी जाती है, तो क्या अल्लाह बहरा है जो इतनी ऊँची आवाज़ चाहिए? कबीर की यह वाणी केवल कटाक्ष नहीं है, बल्कि धर्म के नाम पर दिखावे की आलोचना है।
3. मानवतावाद और समदृष्टि
कबीर की सामाजिक चेतना का आधार मानवतावाद है। वे सभी धर्मों, जातियों और वर्गों से ऊपर उठकर मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखते हैं। उनके लिए सच्चा धर्म वही है जो मनुष्य को प्रेम करना सिखाए, उसकी सेवा करना सिखाए। वे कहते हैं:
“हरि को भजे सो हरि का होई।
जाति-कुल पूछै जाति की लोई॥”
कबीर का यह दृष्टिकोण उस समय के समाज में क्रांतिकारी था क्योंकि वे बिना किसी भेदभाव के सभी को एक समान देखना चाहते थे। उन्होंने यह साफ किया कि ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग प्रेम, सेवा और भक्ति से होकर गुजरता है, न कि जाति, धर्म, कुल, या किसी अन्य सामाजिक ढांचे से।
4. साधनावादी दृष्टिकोण और कर्म पर ज़ोर
कबीर ने कर्म को महत्त्व दिया और अकर्मण्यता को तिरस्कृत किया। वे कहते हैं:
“जा कर करम बुरा है, उसका नहि को दोष।
जा कर मन चंगा तो काठ में गंगाजी बास॥”
इस पंक्ति में वे यह समझा रहे हैं कि किसी की परिस्थितियों के लिए दूसरों को दोष देना गलत है। व्यक्ति का मन और कर्म ही उसका भाग्य बनाते हैं। कबीर की सामाजिक चेतना एक ऐसे समाज की कल्पना करती है जहाँ व्यक्ति अपने कर्म और सोच के आधार पर मूल्यांकित हो, न कि वंश या जाति के कारण।
5. स्त्री-विरोधी सोच पर प्रहार
कबीर का युग ऐसा था जब स्त्रियाँ शिक्षा, धार्मिक क्रियाओं और सामाजिक निर्णयों से दूर कर दी गई थीं। उन पर दोहरी गुलामी थी — एक पुरुष की और दूसरी धार्मिक व्यवस्था की। कबीर ने स्त्रियों की इस स्थिति को समझा और कई स्थानों पर इस स्त्री-विरोधी सोच की आलोचना की।
वे कहते हैं:
“नारी तो नर की जनी, नर क्या जाने पीर पराई।”
वे पुरुषवादी सोच को चुनौती देते हुए कहते हैं कि पुरुष स्त्री के दुख को समझ नहीं सकता क्योंकि वह उसके अनुभव से दूर है। कबीर की चेतना में स्त्री केवल उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि एक समान आत्मा वाली मनुष्य है, जिसे सम्मान और स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।
6. संत-परंपरा के माध्यम से जन-जागरण
कबीर ने भक्ति आंदोलन को केवल धार्मिक सुधार तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने इसका प्रयोग सामाजिक जागरूकता के लिए किया। उनकी भाषा आम आदमी की भाषा थी — साखियाँ, रमैनी, उलटबांसियाँ — ये सभी जनमानस में संवाद स्थापित करने के सशक्त माध्यम बने। उन्होंने धार्मिक ग्रंथों की बजाय अनुभव और तर्क को आधार बनाया।
वे कहते हैं:
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥”
यहाँ वे पुस्तकीय ज्ञान की निरर्थकता को रेखांकित करते हैं और बताते हैं कि प्रेम ही सच्चा ज्ञान है। यह दृष्टिकोण उस समाज में क्रांतिकारी था, जहाँ पंडित और मुल्ला ही धर्म के ठेकेदार बने बैठे थे।
7. संघर्षशीलता और आत्मबल
कबीर की सामाजिक चेतना केवल आलोचना तक सीमित नहीं थी, वह स्वयं एक प्रतिरोध था। उन्होंने विरोध सहा, निंदा झेली, बहिष्कार झेला, पर अपने विचारों से पीछे नहीं हटे। कबीर अपने अनुभव पर विश्वास रखते थे और किसी की स्वीकृति के मोहताज नहीं थे।
वे कहते हैं:
“साहेब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय।
दूजा साहिब जो कहूं, साहिब खड़ा रसाय॥”
कबीर की आत्मबल और निडरता ही उनकी सामाजिक चेतना की ताकत थी। वे अपने समय के “असहमति के पहले कवि” हैं जिन्होंने बिना भय के समाज से टकराने का साहस किया।
इन सभी पहलुओं से यह स्पष्ट होता है कि कबीर की सामाजिक चेतना न केवल अपने समय से आगे की थी, बल्कि आज के समाज के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक है। उन्होंने जिस तरह से जातिवाद, पाखंड, स्त्री-द्वेष और धार्मिक भेदभाव को चुनौती दी, वह उन्हें न केवल संत बनाता है, बल्कि एक सामाजिक विचारक और क्रांतिकारी व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करता है। उनकी वाणी आज भी जनमानस को जाग्रत करती है, सोचने पर मजबूर करती है, और एक ऐसे समाज का सपना दिखाती है जहाँ सब एक समान हों।
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