धर्म और ईश्वर, दोनों मानव सभ्यता के गहरे और पुराने पहलू हैं, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि दोनों हमेशा एक-दूसरे पर निर्भर हों। धर्म को सामान्यतः ईश्वर, पूजा, नैतिकता और जीवन के उच्च उद्देश्य से जोड़ा जाता है, परंतु सभी धर्मों में ईश्वर की संकल्पना समान नहीं होती। इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिए पहले यह जानना आवश्यक है कि “धर्म” और “ईश्वर” की अवधारणाएँ क्या हैं और वे किन संदर्भों में स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में आ सकती हैं।
धर्म एक सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था है, जिसमें नैतिक सिद्धांत, जीवन मूल्य, परंपराएँ, कर्मकांड और अक्सर किसी परम सत्ता या दिव्यता में विश्वास शामिल होता है। वहीं ईश्वर को एक सर्वोच्च शक्ति, सृष्टिकर्ता और नियंता के रूप में देखा जाता है, जो इस ब्रह्मांड को नियंत्रित करता है।
हालाँकि, इतिहास और दर्शन में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहाँ धर्म की अवधारणा ईश्वर के बिना भी विकसित हुई है। उदाहरण के लिए, बौद्ध धर्म में ईश्वर की कोई सर्वशक्तिमान या सर्वज्ञ संकल्पना नहीं है। बुद्ध ने आत्मज्ञान, करुणा, मध्यम मार्ग और चार आर्य सत्य पर बल दिया, न कि किसी ईश्वर की पूजा पर। बौद्ध धर्म पूरी तरह नैतिकता, साधना और आत्मज्ञान पर आधारित है, जिसमें मोक्ष का मार्ग ईश्वर से नहीं, बल्कि स्वयं की साधना से प्राप्त होता है।
इसी प्रकार, जैन धर्म में भी ईश्वर को ब्रह्मांड का कर्ता नहीं माना गया है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा स्वतंत्र और शुद्ध है, जो अपने कर्मों से बंधी रहती है और साधना द्वारा मोक्ष प्राप्त करती है। वहाँ भी कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर नहीं है जो संसार को चला रहा हो।
दूसरी ओर, कुछ आधुनिक मानवतावादी और नैतिक परंपराएँ भी धर्म की तरह कार्य करती हैं, जैसे कि सेक्युलर ह्यूमैनिज़्म। इसमें किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन यह जीवन में नैतिकता, मानवता, समानता और न्याय की शिक्षा देती है। ये विचारधाराएँ भी समाज को एक नैतिक ढाँचा प्रदान करती हैं, जो परंपरागत धर्मों से अलग होते हुए भी उनके कई सामाजिक कार्य करते हैं।
इसके अतिरिक्त, कुछ प्राचीन दर्शन, जैसे कि चार्वाक दर्शन (भारतीय नास्तिक दर्शन), स्पष्ट रूप से ईश्वर और परलोक दोनों को नकारते हैं, फिर भी वे एक जीवन-दृष्टि प्रस्तुत करते हैं जो धर्म-सरीखी है। वे जीवन को यथार्थवादी ढंग से देखने की बात करते हैं और नैतिकता का मूल्यांकन भौतिक जीवन की दृष्टि से करते हैं।
इसके विपरीत, अब्राहमिक धर्मों — जैसे ईसाई, इस्लाम और यहूदी धर्म — में ईश्वर एक केंद्रीय अवधारणा है। वहाँ धर्म की आधारशिला ईश्वर के अस्तित्व, उसके आदेश और धार्मिक ग्रंथों में विश्वास पर आधारित है। इन धर्मों में ईश्वर के बिना धर्म की कल्पना कठिन है क्योंकि उनकी आस्था और नैतिकता सीधे ईश्वर द्वारा निर्धारित मानी जाती है।
परंतु यह जरूरी नहीं कि सभी धर्मों में यह ढाँचा लागू हो। धर्म एक सामाजिक और नैतिक व्यवस्था भी है जो ईश्वर की उपस्थिति के बिना भी अपने नियमों, मूल्यों और जीवनशैली को बनाए रख सकती है।
इस प्रकार, धर्म का उद्देश्य केवल ईश्वर में विश्वास नहीं, बल्कि मनुष्य को एक नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दिशा प्रदान करना भी हो सकता है। यह दिशा व्यक्ति के आत्म-विकास, समाज के कल्याण और जीवन की गहराई को समझने के प्रयास के रूप में भी सामने आ सकती है।
इसलिए, धर्म और ईश्वर का संबंध घनिष्ठ होते हुए भी ऐसा नहीं है कि एक के बिना दूसरा असंभव हो। मानव इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहाँ धर्म ने ईश्वर के बिना भी लोगों के जीवन को दिशा दी है, नैतिकता सिखाई है और एक सामाजिक ढाँचा प्रदान किया है।