प्रस्तावना
खड़ी बोली हिंदी भाषा की वह स्वरूप है जो आज भारतीय समाज में मानक भाषा के रूप में स्थापित है। इसका विकास एक दीर्घकालिक प्रक्रिया का परिणाम है, जो विभिन्न कालखंडों, साहित्यिक आंदोलनों और सामाजिक परिवर्तनों के साथ जुड़ा हुआ है। खड़ी बोली गद्य के विकास ने हिंदी भाषा को एक संगठित और सशक्त रूप प्रदान किया, जिससे यह व्यापक स्तर पर संवाद का माध्यम बन सकी।
इस लेख में, हम खड़ी बोली गद्य के विकास-क्रम को चार प्रमुख चरणों में विभाजित करके उसकी यात्रा का अध्ययन करेंगे।
- प्राचीन काल (10वीं-14वीं शताब्दी)
खड़ी बोली की प्रारंभिक झलक
प्राचीन काल में खड़ी बोली का कोई व्यवस्थित रूप नहीं था। इस काल में भाषाई परिदृश्य पर अपभ्रंश और प्राकृत भाषाओं का वर्चस्व था। खड़ी बोली का बीज इन्हीं भाषाओं में छिपा हुआ था।
संस्कृत और अपभ्रंश का प्रभाव:
संस्कृत, जो कि विद्वानों की भाषा थी, का साहित्यिक और धार्मिक कार्यों पर प्रमुख प्रभाव था। साथ ही, अपभ्रंश बोलचाल की भाषा थी। खड़ी बोली इन्हीं अपभ्रंश भाषाओं से विकसित हुई।
लोकगीतों और मौखिक परंपरा में खड़ी बोली:
इस काल में खड़ी बोली का कोई लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है, लेकिन लोकगीतों, कहावतों, और वार्तालाप में इसकी झलक देखी जा सकती है।
- मध्यकाल (14वीं-18वीं शताब्दी)
खड़ी बोली का उभार और साहित्यिक रूप
मध्यकाल में हिंदी के विभिन्न रूपों जैसे ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक वर्चस्व था। खड़ी बोली ने इस समय धीरे-धीरे अपना स्थान बनाना शुरू किया।
सूफी साहित्य:
खड़ी बोली का पहला व्यवस्थित रूप सूफी कवियों की रचनाओं में देखा गया। अमीर खुसरो ने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली का सहज और सरल प्रयोग किया। उनकी रचनाओं में खड़ी बोली और फारसी का मेल मिलता है। उदाहरणस्वरूप, उनके दोहे और पहेलियां खड़ी बोली के प्रारंभिक लिखित रूप हैं।
उदाहरण:
“सखी साजन घर आए, मोरे अंगना।”
भक्ति आंदोलन:
भक्ति आंदोलन में ब्रज और अवधी का वर्चस्व था, लेकिन इस आंदोलन ने खड़ी बोली को भी परोक्ष रूप से प्रभावित किया। संत कवियों ने सरल और जनभाषा को प्राथमिकता दी, जिससे खड़ी बोली को एक नई दिशा मिली।
प्रशासनिक दस्तावेज और बोलचाल की भाषा:
मुगलकाल में खड़ी बोली का उपयोग प्रशासनिक दस्तावेजों में होने लगा। यह फारसी के साथ मिलकर एक मिश्रित रूप में उभर रही थी।
- आधुनिक काल (19वीं शताब्दी)
खड़ी बोली गद्य का सुनियोजित विकास
19वीं शताब्दी को खड़ी बोली गद्य के विकास का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस दौर में हिंदी पत्रकारिता, अनुवाद कार्य, और साहित्य ने खड़ी बोली को मजबूत आधार प्रदान किया।
भारतीय नवजागरण और खड़ी बोली:
भारत में नवजागरण के समय खड़ी बोली ने एक साहित्यिक भाषा के रूप में अपने पांव जमाए। इस काल में अंग्रेजी शासन के प्रभाव के कारण खड़ी बोली को आधुनिक विचारधारा और तकनीकी शब्दावली से समृद्ध होने का अवसर मिला।
प्रारंभिक गद्य रचनाएं:
खड़ी बोली गद्य के आरंभ का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को दिया जाता है। उन्होंने खड़ी बोली में निबंध, नाटक, और लेख लिखकर इसे साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित किया।
प्रमुख रचनाकार:
भारतेंदु हरिश्चंद्र (नाटक: “अंधेर नगरी”)
राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ (पहला हिंदी उपन्यास: “परीक्षा गुरु”)
हिंदी पत्रकारिता का योगदान:
आधुनिक पत्रकारिता ने खड़ी बोली को साहित्यिक और संवाद की भाषा के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। “हिंदी प्रदीप,” “उदंत मार्तंड,” और “भारत मित्र” जैसे पत्र-पत्रिकाओं ने खड़ी बोली को लोकप्रिय बनाया।
- स्वतंत्रता संग्राम और खड़ी बोली (20वीं शताब्दी)
राष्ट्रीय भाषा बनने की यात्रा
20वीं शताब्दी में खड़ी बोली ने राष्ट्रीय आंदोलन के माध्यम से भारत के जन-जन तक पहुंच बनाई। यह स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख भाषा बन गई।
महात्मा गांधी और हिंदी का प्रचार:
महात्मा गांधी ने खड़ी बोली को जनमानस की भाषा के रूप में अपनाया। उनके लेखन और भाषणों ने इसे व्यापक स्वीकृति दिलाई।
प्रेमचंद का योगदान:
प्रेमचंद ने खड़ी बोली में उपन्यास और कहानियां लिखकर इसे साहित्य के शिखर पर पहुंचाया। उनकी रचनाओं में खड़ी बोली का सहज और प्रभावी प्रयोग मिलता है। उदाहरणस्वरूप: “गोदान” और “गबन”।
हिंदी साहित्य सम्मेलन और गद्य का विकास:
20वीं शताब्दी में हिंदी साहित्य सम्मेलन और अन्य साहित्यिक संगठनों ने खड़ी बोली के गद्य को बढ़ावा दिया।
संविधान में स्थान:
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1950 में भारतीय संविधान ने खड़ी बोली हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया।
- वर्तमान काल (21वीं शताब्दी)
खड़ी बोली का डिजिटल युग में विस्तार
वर्तमान में खड़ी बोली हिंदी डिजिटल मीडिया, सिनेमा, और वैश्विक मंचों पर अपनी जगह बना रही है।
डिजिटल और सोशल मीडिया:
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर खड़ी बोली सबसे अधिक प्रचलित है। यह भाषा अब तकनीकी और वैश्विक संदर्भ में भी प्रयोग की जा रही है।
साहित्य और पाठ्यक्रम:
खड़ी बोली अब स्कूली और विश्वविद्यालयीय पाठ्यक्रमों का अभिन्न हिस्सा है।
नई विधाओं का विकास:
खड़ी बोली में ब्लॉग, वेब सीरीज, और समसामयिक लेखन के माध्यम से नए प्रयोग हो रहे हैं।
निष्कर्ष
खड़ी बोली गद्य का विकास एक लंबी और सतत प्रक्रिया का परिणाम है, जो प्राचीन काल से वर्तमान डिजिटल युग तक फैली हुई है। यह भाषा भारतीय समाज की बदलती जरूरतों और सांस्कृतिक परिवर्तनों के साथ विकसित होती रही है। खड़ी बोली ने न केवल साहित्यिक और संवाद की भाषा के रूप में खुद को स्थापित किया, बल्कि भारतीय अस्मिता और एकता के प्रतीक के रूप में भी अपनी पहचान बनाई।
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