तोड़ती पत्थर पर टिप्पणी


‘तोड़ती पत्थर’ प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि सुमित्रानंदन पंत की एक अत्यंत संवेदनशील और यथार्थवादी कविता है। यह कविता छोटी होते हुए भी बहुत गहरा प्रभाव छोड़ती है। इसमें कवि ने एक साधारण स्त्री की मेहनत, पीड़ा और उसकी मजबूरी के माध्यम से समाज की असमानता, श्रम का शोषण और महिला जीवन की त्रासदी को बड़ी सजीवता से चित्रित किया है।

यह कविता केवल एक महिला के पत्थर तोड़ने की कहानी नहीं है, बल्कि यह पूरे श्रमिक वर्ग की पीड़ा का प्रतीक है, खासकर उस स्त्री वर्ग की जो दोहरी पीड़ा झेलता है — एक सामाजिक और दूसरी आर्थिक।


कविता का सार:

कवि ने इलाहाबाद के पथ (सड़क) पर एक महिला को धूप में सिर झुकाए पत्थर तोड़ते हुए देखा। उसने न चश्मा पहना है, न ही सिर पर कपड़ा बांधा है। वह पूरे एकांत और मौन में अपने काम में लगी हुई है, जैसे कि जीवन में कुछ शेष नहीं बचा हो — न आकांक्षा, न अभिलाषा।

कवि को यह दृश्य भीतर तक झकझोर देता है। वह सोचता है कि एक स्त्री होकर भी यह महिला बिना किसी शिकायत के इतनी कठोर मेहनत कर रही है। क्या यह मजबूरी है? दुख है? सामाजिक अन्याय है? यही सवाल कविता के माध्यम से उठाए गए हैं।


मुख्य विशेषताएँ और टिप्पणी:

1. यथार्थ का प्रभावशाली चित्रण:

पंत जी आमतौर पर प्रकृति और सौंदर्य के कवि माने जाते हैं, लेकिन इस कविता में उन्होंने श्रमिक वर्ग की कठोर सच्चाई को बिना किसी अलंकरण के प्रस्तुत किया है। महिला की स्थिति देखकर लगता है कि यह सौंदर्य नहीं, पीड़ा का दृश्य है — जो सच्चे जीवन से जुड़ा है।


2. स्त्री-विमर्श की शुरुआत:

‘तोड़ती पत्थर’ एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो घर की चौखट से निकलकर पुरुषों जैसे कठोर काम करने पर मजबूर है। यह स्त्री केवल मेहनतकश नहीं, बल्कि सहनशीलता और आत्म-बल की प्रतीक भी है। वह न रोती है, न शिकायत करती है — सिर्फ चुपचाप काम करती है।


3. मौन की भाषा:

पूरी कविता में स्त्री एक शब्द भी नहीं बोलती, लेकिन उसका मौन ही सबसे अधिक बोलता है। कवि भी यह देखकर स्तब्ध है कि कोई स्त्री इतनी पीड़ा में भी शब्दहीन कैसे रह सकती है

यह मौन दरअसल हमारे समाज का वास्तविक चित्रण है, जहाँ गरीब औरतों की आवाज़ को कोई सुनता ही नहीं।


4. सामाजिक चेतना का जागरण:

यह कविता केवल एक संवेदना नहीं जगाती, बल्कि एक सवाल खड़ा करती है — कि आखिर ऐसा क्यों है? एक औरत, जिसे सुरक्षा और सम्मान मिलना चाहिए, वह धूप में तपकर पत्थर क्यों तोड़ रही है?

यह प्रश्न समाज की वर्गीय व्यवस्था, लैंगिक भेदभाव और श्रम शोषण की ओर संकेत करता है।


5. कला और यथार्थ का मिलन:

पंत जी ने इस कविता में न तो भारी शब्दों का प्रयोग किया, न कोई जटिल शैली अपनाई। उन्होंने साधारण दृश्य को असाधारण गहराई के साथ प्रस्तुत किया। यही इस कविता की सबसे बड़ी खूबी है — कम शब्दों में गहरी चोट।


निष्कर्ष:

‘तोड़ती पत्थर’ कविता एक मौन चीख की तरह है। यह कविता उस वर्ग की बात करती है, जिसकी पीड़ा अक्सर अदृश्य रह जाती है। सुमित्रानंदन पंत ने इस कविता के माध्यम से यह दिखाया कि कविता केवल कल्पना नहीं, समाज का दर्पण भी होती है।

यह रचना हमें सोचने को मजबूर करती है — क्या हमने वाकई एक समान, न्यायपूर्ण और मानवीय समाज की ओर कदम बढ़ाए हैं?


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