दंड के निषेधात्मक सिद्धांत की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।


परिचय

किसी भी समाज की व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून बनाए जाते हैं और उन कानूनों का उल्लंघन करने वालों को सज़ा दी जाती है। यह सज़ा यानी दंड समाज में अनुशासन बनाए रखने, अपराध को रोकने और न्याय स्थापित करने का एक साधन होती है।

लेकिन दंड केवल बदले की भावना से नहीं दिया जाता, बल्कि इसके पीछे कई उद्देश्य और सिद्धांत होते हैं। इन्हीं सिद्धांतों में एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है – दंड का निषेधात्मक सिद्धांत (Deterrent Theory of Punishment)


दंड का निषेधात्मक सिद्धांत क्या है? (What is the Deterrent Theory of Punishment?)

निषेधात्मक सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य है – अपराध को रोकना। इस सिद्धांत के अनुसार, दंड का मकसद सिर्फ अपराधी को सजा देना नहीं, बल्कि उसे और पूरे समाज को यह चेतावनी देना है कि यदि कानून तोड़ा गया, तो उसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा।

सरल भाषा में कहें तो:
यह सिद्धांत यह मानता है कि अगर दंड कठोर और निश्चित होगा, तो लोग अपराध करने से डरेंगे और अपराध दर में कमी आएगी।


निषेधात्मक सिद्धांत की मूल धारणा (Core Idea of Deterrent Theory)

  • दंड का मकसद बदला लेना नहीं, डर पैदा करना है।
  • अपराधी को ऐसा अनुभव कराना कि वह दोबारा अपराध करने की हिम्मत न करे।
  • आम जनता के लिए उदाहरण पेश करना ताकि वे अपराध से दूर रहें।

यह सिद्धांत कहता है:
“सज़ा ऐसी हो कि देखने वाले भी डरें।”


निषेधात्मक सिद्धांत का ऐतिहासिक विकास

दंड की यह अवधारणा बहुत पुरानी है। प्राचीन समाजों में अपराध को रोकने के लिए कठोर दंड दिए जाते थे, जिनका उद्देश्य था अपराध के प्रति भय पैदा करना।

प्राचीन भारत में:

  • मनुस्मृति और धर्मशास्त्रों में भी दंड का उद्देश्य डर उत्पन्न करना बताया गया है।
  • राजा के दंड देने से जनता के बीच व्यवस्था बनी रहती थी।

प्राचीन यूरोप में:

  • मध्यकालीन यूरोप में चोरी, हत्या और बलात्कार जैसे अपराधों के लिए सार्वजनिक रूप से फांसी, कोड़े, अंग काटने जैसी सजाएं दी जाती थीं।

इन सबका उद्देश्य यही था कि अपराधी के साथ ऐसा व्यवहार किया जाए कि लोग अपराध से डरें।


निषेधात्मक सिद्धांत के प्रकार (Types of Deterrence)

निषेधात्मक सिद्धांत को दो मुख्य भागों में बांटा जाता है:

1. व्यक्तिगत निषेध (Individual Deterrence):

  • इसका उद्देश्य होता है – अपराधी को पुनः अपराध करने से रोकना।
  • सजा देकर उसे यह एहसास दिलाना कि अगली बार उसे और कड़ी सजा मिलेगी।

उदाहरण:
अगर कोई व्यक्ति चोरी करता है और उसे जेल की सजा होती है, तो वह भविष्य में डर के कारण दोबारा चोरी करने से बचेगा।

2. सामाजिक या सामान्य निषेध (General Deterrence):

  • इसका उद्देश्य होता है – समाज को अपराध से डराना।
  • जब लोग देखते हैं कि किसी अपराध के लिए सजा दी गई, तो वे स्वयं अपराध करने से डरते हैं।

उदाहरण:
जब किसी भ्रष्ट नेता को जेल भेजा जाता है, तो बाकी लोग डरते हैं और रिश्वत लेने से बचते हैं।


निषेधात्मक सिद्धांत की विशेषताएँ (Key Features of Deterrent Theory)

  1. डर के जरिए अपराध रोकना:
    दंड का मुख्य उद्देश्य भय उत्पन्न करना है – चाहे वह अपराधी के मन में हो या समाज के बाकी लोगों के मन में।
  2. कठोरता की वकालत:
    यह सिद्धांत कहता है कि दंड जितना कठोर होगा, उतना प्रभावी होगा।
  3. उदाहरण प्रस्तुत करना:
    अपराधियों को दंड देना केवल उनके सुधार के लिए नहीं, बल्कि समाज में यह दिखाने के लिए होता है कि कानून का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
  4. रोकथाम की भावना:
    दंड अपराध को भविष्य में होने से रोकने का एक उपकरण है।
  5. न्यायपालिका की भूमिका:
    न्यायपालिका को इस सिद्धांत के तहत सख्त दंड देना चाहिए ताकि समाज में अपराध के प्रति गंभीर संदेश जाए।

निषेधात्मक सिद्धांत के समर्थक विचारक (Thinkers Supporting Deterrence Theory)

1. बेन्थम (Jeremy Bentham):

  • उन्होंने Utilitarianism का समर्थन करते हुए कहा कि दंड का उद्देश्य “अधिक से अधिक लोगों को अधिक से अधिक लाभ” देना है।
  • यदि अपराधी को दंड दिया जाता है, तो यह समाज के लिए लाभकारी होता है।

2. बेक्कारिया (Cesare Beccaria):

  • उन्होंने अपनी किताब “On Crimes and Punishments” में निषेधात्मक सिद्धांत को समर्थन दिया।
  • उनका मानना था कि सज़ा त्वरित, निश्चित और न्यायपूर्ण होनी चाहिए – ताकि वह प्रभावशाली हो।

निषेधात्मक सिद्धांत के व्यवहारिक उदाहरण (Practical Examples)

  1. मृत्युदंड (Capital Punishment):
    • हत्या जैसे अपराधों में मृत्यु दंड देने से अपराधियों में डर पैदा होता है।
    • यह समाज में यह संदेश देता है कि गंभीर अपराध को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
  2. तेज न्यायिक प्रक्रिया (Fast Track Courts):
    • बलात्कार जैसे मामलों में तेज़ फैसले और कठोर दंड समाज में अपराध के प्रति निषेध का प्रभाव डालते हैं।
  3. पब्लिक ट्रायल या रिपोर्टिंग:
    • जब अपराधियों की पहचान सार्वजनिक की जाती है, तो बाकी लोग भी अपराध करने से डरते हैं।

निषेधात्मक सिद्धांत की आलोचना (Criticism of Deterrent Theory)

हालाँकि यह सिद्धांत अपराध को रोकने का एक मजबूत आधार प्रस्तुत करता है, पर इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं:

1. सभी अपराधी डरते नहीं हैं:

  • कुछ अपराधी मानसिक रूप से अस्थिर होते हैं या परिस्थितियों से विवश होते हैं, जिन पर डर का असर नहीं पड़ता।

2. कठोर सज़ा से सुधार नहीं होता:

  • अगर किसी अपराधी को केवल सजा दी जाए और उसका सुधार न किया जाए, तो वह बाहर आकर फिर अपराध कर सकता है।

3. भय का वातावरण:

  • अत्यधिक कठोर दंड से समाज में डर और असुरक्षा का वातावरण बन सकता है।

4. गलत फैसलों का खतरा:

  • यदि किसी निर्दोष व्यक्ति को कठोर दंड मिल जाए, तो वह अन्यायपूर्ण हो जाता है और न्याय व्यवस्था पर से विश्वास उठ जाता है।

5. पुनर्वास की उपेक्षा:

  • यह सिद्धांत अपराधी के सुधार या पुनर्वास की चिंता नहीं करता – केवल उसे सजा देकर डराने पर ज़ोर देता है।

निषेधात्मक सिद्धांत की वर्तमान प्रासंगिकता (Relevance in Modern Times)

आज भी दुनिया के कई देशों में यह सिद्धांत प्रभावी रूप में मौजूद है। विशेष रूप से गंभीर अपराधों के मामलों में इस सिद्धांत के अनुसार ही दंड दिया जाता है।

भारत में भी:

  • POCSO Act,
  • दुष्कर्म के मामलों में सख्त सज़ाएं,
  • आतंकी गतिविधियों के लिए फांसी की सज़ा
    इन सभी का उद्देश्य अपराधियों को सज़ा देने के साथ-साथ समाज को चेतावनी देना है।

हालाँकि अब न्याय प्रणाली में पुनर्वास और सुधारात्मक दृष्टिकोण को भी महत्व दिया जा रहा है, लेकिन निषेधात्मक सिद्धांत की भूमिका अभी भी बनी हुई है – विशेषकर जब अपराध की प्रकृति भयावह हो और समाज में आक्रोश हो।


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