“निर्गुन कौन देस को बासी? को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी?” सप्रसंग व्याख्या

संदर्भ:


प्रस्तुत पंक्ति संत कबीरदास की साखियों से ली गई है। कबीरदास भक्ति आंदोलन के महान संत और समाज सुधारक थे। उन्होंने निर्गुण भक्ति पर आधारित अपने विचारों को साखियों और पदों के माध्यम से व्यक्त किया। उनकी रचनाएँ सरल, सजीव और गूढ़ अर्थों से युक्त होती हैं। प्रस्तुत साखी में उन्होंने निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप और उसकी रहस्यमय प्रकृति को स्पष्ट किया है।

प्रसंग:


इस साखी में कबीरदास ने निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा को प्रश्नों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। वे पाठक या श्रोता को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि ईश्वर को किसी भौतिक सीमाओं में बांधना या मानवीय रूप में परिभाषित करना संभव नहीं है। यह साखी अद्वैतवाद और निर्गुण भक्ति पर आधारित है, जिसमें ईश्वर का कोई रूप, स्थान, या परिवार नहीं होता।

व्याख्या:


कबीरदास ने इस साखी में ईश्वर के निराकार और असीम स्वरूप की चर्चा की है। वे कहते हैं:
निर्गुण कौन देस को बासी?”
इस प्रश्न के माध्यम से वे पूछते हैं कि निर्गुण ईश्वर कहाँ निवास करता है। इसका उत्तर यह है कि ईश्वर किसी विशेष स्थान का निवासी नहीं है, वह सर्वव्यापी है। उसे किसी देश, समय, या स्थान में सीमित नहीं किया जा सकता। वह कण-कण में विद्यमान है और हर जीव में समाया हुआ है।

को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी?”
यहाँ कबीर ईश्वर की उत्पत्ति और उसकी पारिवारिक संरचना पर प्रश्न उठाते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर को न तो किसी जनक (पिता) की आवश्यकता है, न किसी जननि (माता) की। वह स्वनिर्मित है और उसकी उत्पत्ति के पीछे कोई कारण नहीं है। इसी तरह, ईश्वर को दासी या सेविका की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह स्वयं स्वतंत्र और सर्वशक्तिमान है।

कबीरदास के अनुसार, ईश्वर को मानवीय गुणों और रिश्तों में बांधना हमारी अज्ञानता को दर्शाता है। ईश्वर न तो जन्म लेता है, न मरता है। वह समय और स्थान की सीमाओं से परे है।

भावार्थ:


इस साखी के माध्यम से कबीरदास ने यह स्पष्ट किया है कि ईश्वर का स्वरूप हमारी समझ और तर्क से परे है। वह निराकार, असीम, और अनंत है। उसे किसी भौतिक स्वरूप या नाम-रूप में परिभाषित करना संभव नहीं है। कबीरदास इस साखी के द्वारा यह संदेश देते हैं कि हमें ईश्वर को समझने के लिए बाहरी साधनों की बजाय आत्मा की गहराई में उतरना चाहिए।

निष्कर्ष:


यह साखी निर्गुण भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें ईश्वर के निराकार और असीम स्वरूप को सरल भाषा में समझाया गया है। कबीरदास ने इस साखी के माध्यम से यह संदेश दिया है कि ईश्वर को बाहरी पूजा-पाठ या भौतिक सीमाओं में बांधने की बजाय, उसे अपने भीतर आत्मा के रूप में अनुभव करना चाहिए।

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