नैतिकता में कर्त्तव्यवादी कठोरता क्या है? इसके प्रमुख लक्षणों को स्पष्ट कीजिए।


परिचय

नैतिकता का सम्बन्ध मनुष्य के व्यवहार और कार्यों के मूल्यांकन से है। यह तय करती है कि कोई कार्य नैतिक रूप से सही है या गलत। नैतिक विचारधाराओं में एक विशेष दृष्टिकोण है – कर्त्तव्यवाद (Deontology)। इस विचारधारा का मूल यह है कि व्यक्ति को अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए, चाहे परिणाम कुछ भी हो। इसी विचारधारा के भीतर एक विशिष्ट और गहन दृष्टिकोण आता है – कर्त्तव्यवादी कठोरता

कर्त्तव्यवादी कठोरता, नैतिकता की उस स्थिति को दर्शाती है जहाँ किसी व्यक्ति या समाज की नैतिक सोच इतनी सख्त और नियमबद्ध हो जाती है कि वह परिणाम या परिस्थिति को बिना देखे केवल सिद्धांतों का पालन करने पर अड़ी रहती है। यह सोच कहती है – “अगर यह मेरा कर्त्तव्य है, तो मुझे करना ही है, चाहे इसका परिणाम कुछ भी हो।”


कर्त्तव्यवादी कठोरता क्या है? (What is Deontological Rigidity?)

कर्त्तव्यवादी कठोरता (Deontological Rigidity) नैतिक दर्शन में एक ऐसा विचार है जिसमें यह माना जाता है कि कुछ नैतिक नियम निरपेक्ष (absolute) होते हैं और उनसे किसी भी स्थिति में विचलन नहीं किया जा सकता।

इसका मुख्य आधार यह है कि कार्य की नैतिकता का मूल्यांकन परिणाम से नहीं, बल्कि उस कार्य के पीछे के नीयत (intent) और कर्त्तव्य बोध से होना चाहिए।

सरल शब्दों में:

  • अगर कोई कार्य “कर्त्तव्य” है, तो उसे हर हाल में किया जाना चाहिए।
  • चाहे उस कार्य के परिणाम हानिकारक हों, नियम का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
  • नैतिकता सिद्धांत आधारित होनी चाहिए, न कि परिणाम आधारित।

कर्त्तव्यवादी कठोरता का दर्शनात्मक आधार:

कर्त्तव्यवादी कठोरता की सबसे प्रमुख आवाज़ इमैनुएल कान्ट (Immanuel Kant) के नैतिक दर्शन में मिलती है। उन्होंने कहा:

“कर्त्तव्य के कारण कर्त्तव्य का पालन करो।”

उनकी दृष्टि में नैतिक नियम सार्वभौमिक होते हैं – जो नियम मैं अपने लिए मानता हूँ, वही नियम हर व्यक्ति पर समान रूप से लागू होना चाहिए।

उदाहरण:
अगर “झूठ बोलना गलत है”, तो यह नियम हर स्थिति में, हर किसी के लिए लागू होगा – चाहे उससे जान बचती हो या बिगड़ती हो।


कर्त्तव्यवादी कठोरता के प्रमुख लक्षण (Main Features of Deontological Rigidity)

कर्त्तव्यवादी कठोरता को ठीक से समझने के लिए इसके प्रमुख लक्षणों को विस्तार से जानना आवश्यक है:


1. नैतिक नियमों की निरपेक्षता (Absolutism of Moral Rules)

कर्त्तव्यवादी कठोरता मानती है कि नैतिक नियम अटल और सार्वभौमिक होते हैं। उन्हें बदला नहीं जा सकता।

उदाहरण:

  • हत्या करना हमेशा गलत है – भले ही वह किसी आतंकी की हो।
  • झूठ बोलना अनुचित है – चाहे उससे किसी निर्दोष की जान ही क्यों न बच जाए।

यह सोच नियमों को प्राथमिकता देती है, परिस्थितियों को नहीं।


2. परिणामों की उपेक्षा (Neglect of Consequences)

इस सोच में परिणामों का मूल्यांकन नहीं किया जाता। कार्य अगर नैतिक कर्त्तव्य है, तो उसके अच्छे या बुरे परिणाम से कोई फर्क नहीं पड़ता।

उदाहरण:

  • एक डॉक्टर अगर यह मानता है कि उसे हर मरीज को सच्चाई बतानी चाहिए, तो वह कैंसर पीड़ित को भी बता देगा – भले ही मरीज सदमे में मर जाए।

कर्त्तव्यवादी कठोरता मानती है कि अगर आप नैतिक नियमों का पालन कर रहे हैं, तो आप सही हैं – परिणाम चाहे जो हो।


3. नैतिक निर्णयों में लचीलापन नहीं (No Flexibility in Moral Judgement)

कर्त्तव्यवादी कठोरता में परिस्थिति, भावना, या मानवता के लिए कोई लचीलापन नहीं होता। यह सोच सख्ती से नैतिक सिद्धांतों का पालन करने की मांग करती है।

उदाहरण:

  • अगर किसी की जान बचाने के लिए झूठ बोलना पड़े, तो भी यह सिद्धांत कहता है – “झूठ बोलना अनुचित है।”

इस तरह यह दृष्टिकोण मानवीय संवेदनाओं की उपेक्षा करता है।


4. नियमों की सार्वभौमिकता (Universality of Rules)

कर्त्तव्यवादी कठोरता के अनुसार, नैतिक नियम सबके लिए समान होते हैं – कोई अपवाद नहीं।

उदाहरण:

  • अगर चोरी गलत है, तो वह भूखे बच्चे के लिए भी गलत है जो रोटी चुराता है।
  • अगर धोखा देना अनुचित है, तो वह दुश्मन को भी धोखा देने पर लागू होगा।

यह सोच कहती है कि नैतिक नियम को इस तरह अपनाओ जैसे वह सभी के लिए एक सार्वभौमिक कानून हो।


5. कर्त्तव्य का प्राथमिकता में होना (Primacy of Duty over Emotion)

इस दृष्टिकोण में भावनाओं, सहानुभूति या करुणा को नैतिक निर्णयों में स्थान नहीं दिया जाता। केवल “कर्त्तव्य” ही मार्गदर्शक होता है।

उदाहरण:

  • कोई सिपाही अपने घायल बेटे को छोड़कर युद्ध के मैदान में लौट जाता है क्योंकि उसका कर्त्तव्य राष्ट्र रक्षा है।

यहाँ “कर्त्तव्य” भावना पर हावी होता है।


6. नैतिक दुविधाओं में कठोरता (Rigidity in Moral Dilemmas)

जब दो नैतिक कर्त्तव्य टकराते हैं, तब भी कर्त्तव्यवादी कठोरता लचीलापन नहीं दिखाती।

उदाहरण:

  • एक शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह चीटिंग रोकें, लेकिन जब उसका अपना बेटा परीक्षा में नकल करता है, तो वह उसे भी फेल कर देता है – क्योंकि नियम सर्वोपरि है।

यहां मानवीय संवेदना को दरकिनार कर दिया जाता है।


7. व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी का भारी दबाव (Heavy Emphasis on Moral Responsibility)

कर्त्तव्यवादी कठोरता में व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह हर स्थिति में नैतिक रूप से सही निर्णय ले, भले ही उसके लिए व्यक्तिगत हानि क्यों न उठानी पड़े।

उदाहरण:

  • एक सरकारी अफसर रिश्वत से इंकार करता है, जानता है कि उसे नौकरी से निकाला जा सकता है – लेकिन वह अपने नैतिक कर्त्तव्य पर डटा रहता है।

कर्त्तव्यवादी कठोरता के व्यवहारिक उदाहरण

  1. गांधी जी का सत्य पर आग्रह:
    गांधीजी ने सत्य और अहिंसा को सर्वोच्च कर्त्तव्य माना और हर स्थिति में इनका पालन किया।
  2. सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र:
    उन्होंने अपने कर्त्तव्य पालन के लिए परिवार, सुख, धन – सब त्याग दिया।
  3. पुलिस अधिकारी द्वारा भाई की गिरफ्तारी:
    अगर एक ईमानदार पुलिस अधिकारी अपने ही भाई को अपराध के लिए गिरफ्तार करता है, तो यह कर्त्तव्यवादी कठोरता का व्यवहारिक रूप है।

कर्त्तव्यवादी कठोरता की आलोचना (Criticism of Deontological Rigidity)

हालाँकि यह दृष्टिकोण नैतिक सिद्धांतों को दृढ़ बनाता है, लेकिन इसके कई व्यवहारिक दोष भी हैं:

1. अत्यधिक सख्ती:

  • यह दृष्टिकोण अत्यधिक कठोर बन जाता है, जिससे मानवीय संवेदनाओं की अनदेखी होती है।

2. जटिल परिस्थितियों में दिशाहीनता:

  • जब दो नैतिक कर्त्तव्य टकराते हैं, तो यह दर्शन कोई स्पष्ट मार्ग नहीं देता।

3. परिणाम की उपेक्षा:

  • हर कार्य के परिणाम महत्वपूर्ण होते हैं, और उन्हें पूरी तरह नज़रअंदाज़ करना यथार्थ से दूर है।

4. सहानुभूति और दया की कमी:

  • इस सोच में सहानुभूति, करुणा, माफ़ करने की भावना जैसी मानवीय विशेषताओं का स्थान नहीं होता।

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