बादल को घिरते देखा है’ कविता की समीक्षा कीजिए।


बादल को घिरते देखा है:

परिचय:

‘बादल को घिरते देखा है’ हिंदी साहित्य के प्रख्यात कवि नागार्जुन की एक अत्यंत प्रभावशाली और बहुचर्चित कविता है। यह कविता केवल एक प्राकृतिक दृश्य का चित्रण नहीं है, बल्कि एक व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक सन्दर्भों को समेटे हुए है। इसमें प्रकृति के माध्यम से कवि ने न केवल जीवन की झांकी प्रस्तुत की है, बल्कि सामाजिक चेतना, अनुभव की गहराई और मानवीय संवेदना को भी उजागर किया है। नागार्जुन की यह कविता उनकी काव्य-शैली, भाषा और विचारधारा का बेहतरीन उदाहरण मानी जाती है।


कविता का सार:

‘बादल को घिरते देखा है’ कविता में कवि ने मानसून की ऋतु के आगमन के पूर्व के क्षणों का बहुत ही सजीव चित्रण किया है। उन्होंने उत्तर भारत के ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि को लेकर बादल के घिरने, पक्षियों के उड़ने, पेड़ों की हिलोर, पशुओं के व्यवहार, और खेतों की गंध को अत्यंत जीवंत भाषा में प्रस्तुत किया है। यह सब कुछ इतना स्पष्ट और सजीव है कि पाठक को महसूस होता है जैसे वह स्वयं गाँव के किसी कोने में खड़ा होकर यह दृश्य देख रहा हो।


कविता का भाव पक्ष:

इस कविता में नागार्जुन केवल प्रकृति का सौंदर्य नहीं दिखाते, वे उससे एक भावनात्मक रिश्ता बनाते हैं। कविता की हर पंक्ति में एक आत्मीयता, एक गहराई है। कवि बादल को केवल देख नहीं रहा, वह महसूस कर रहा है। वह बादल के आने की चेतावनी भी देखता है और उसमें एक उम्मीद की किरण भी।

“बादल को घिरते देखा है” –
यह पंक्ति एक आम ग्रामीण के उस अनुभव की झलक है, जहाँ आकाश में बदलते रंग सीधे धरती की धड़कनों को प्रभावित करते हैं।

यह भाव पक्ष पाठक को अपने साथ बाँधता है, उसे कविता में खींच लाता है।


प्रकृति चित्रण:

नागार्जुन का प्रकृति चित्रण सतही या केवल दृश्यात्मक नहीं है, वह संपूर्ण जीवन का प्रतिनिधित्व करता है। जब वे लिखते हैं:

“छोटी-छोटी पूसीयाँ,
एक साथ उड़ती जाती हैं,
फिर सहसा बिखर जाती हैं…”

यह केवल पक्षियों की उड़ान नहीं है, यह जीवन की गति, उसकी अनिश्चितता और प्राकृतिक बदलावों की सूचना है। कविता में गाय, बकरियाँ, आम के पेड़, पंछी, खेत – ये सब किसी चित्र की तरह आँखों के सामने आते हैं। यह प्रकृति चित्रण पाठक को कविता से आत्मीय बना देता है।


सामाजिक संदर्भ:

नागार्जुन जनकवि हैं, इसलिए उनकी कविताओं में सामाजिक चेतना अनिवार्यतः उपस्थित रहती है। ‘बादल को घिरते देखा है’ कविता में भी मानसून के संकेत केवल प्राकृतिक नहीं हैं – वे किसान के लिए फसल का, बच्चे के लिए मस्ती का, और एक आम आदमी के लिए राहत और संघर्ष का प्रतीक हैं। कविता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि एक गाँव में बादल का घिरना मात्र मौसम परिवर्तन नहीं, बल्कि आर्थिक और भावनात्मक बदलाव का प्रतीक होता है।

बादलों के साथ चिंता भी आती है, उम्मीद भी। यह कविता इस द्वंद्व को बख़ूबी उभारती है।


भाषा शैली:

नागार्जुन की भाषा उनकी सबसे बड़ी ताक़त है। ‘बादल को घिरते देखा है’ कविता की भाषा भी अत्यंत सरल, बोलचाल की, और चित्रात्मक है। वे क्लिष्टता से दूर रहते हैं और अत्यंत स्वाभाविक भाषा में गहराई रचते हैं।

उदाहरणस्वरूप:

“गायें लौट आई हैं अब तक,
खटिया पर दादी अम्मा
बोझिल आंखें मूँदे बैठे
बड़दों के घूमर खुर की
रुनझुन सुनकर कहते-कहते
कथा किसी की फिरने लगतीं…”

यहाँ भाषा इतनी सहज है कि किसी पाठशाला का बच्चा भी समझ सके, लेकिन भाव इतने गहरे हैं कि साहित्य के अध्येता भी मंत्रमुग्ध हो जाएँ। नागार्जुन ने बिम्बों का प्रयोग बहुत ही स्वाभाविक रूप से किया है।


ध्वनि और लय:

इस कविता की एक खास विशेषता उसकी लयात्मकता है। पूरी कविता में एक धीमी, सहज लय बहती है – ठीक वैसे ही जैसे खेतों के ऊपर बादलों की छाया धीरे-धीरे सरकती है। यह लय पाठक को कविता के साथ बहने का अनुभव कराती है। कविता में ध्वनियों का भी कुशल प्रयोग है, जैसे ‘रुनझुन’ शब्द से बड़दों की चाल और गाँव के जीवन की आहट आती है।


प्रतीक और बिम्ब:

नागार्जुन प्रतीकों और बिम्बों के प्रयोग में माहिर थे। इस कविता में भी बादल, पंछी, खेत, पेड़, दादी, गाय – सभी प्रतीक बन जाते हैं। ये प्रतीक गाँव की संस्कृति, ग्रामीण जीवन की समस्याओं और भावनाओं को संजोए हुए हैं।

  • बादल – बदलते समय और संभावनाओं के प्रतीक हैं।
  • गायें और बकरियाँ – ग्रामीण जीवन की नियमितता और श्रमशीलता को दर्शाती हैं।
  • दादी अम्मा – पीढ़ियों का अनुभव, परंपरा और कथा-संस्कृति की प्रतीक हैं।
  • खेत – जीवन और जीविका के मूल स्रोत हैं।

इन प्रतीकों के माध्यम से कविता में एक व्यापक फलक उभरता है।


कविता की समकालीनता:

भले ही यह कविता वर्षों पहले लिखी गई हो, लेकिन इसकी भावनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। आज जब हम पर्यावरण संकट, जलवायु परिवर्तन और किसानों की समस्याओं की बात करते हैं, तो यह कविता हमें एक गहरे स्तर पर प्रकृति और मनुष्य के संबंध की याद दिलाती है।

बादल का आना आज भी गांवों के लिए सिर्फ मौसम नहीं, एक सामाजिक घटना है। इस दृष्टि से कविता की समकालीनता आज और अधिक बढ़ जाती है। (बादल को घिरते देखा है)


नागार्जुन की विशेषता:

नागार्जुन को ‘यात्री’ नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने जितना जीवन को जिया, उतना ही साहित्य को भी। ‘बादल को घिरते देखा है’ कविता में वही अनुभवों की थाती, वही जनजीवन का आत्मीय चित्रण और वही भाषा की सरलता दिखाई देती है जो उन्हें विशिष्ट बनाती है।(बादल को घिरते देखा है)


निष्कर्ष:

‘बादल को घिरते देखा है’ केवल एक कविता नहीं, वह भारतीय ग्रामीण जीवन की एक जीवंत झलक है। यह कविता भाव, भाषा और दृष्टि – तीनों स्तरों पर अत्यंत सफल है। नागार्जुन ने यहाँ एक साधारण प्राकृतिक घटना को असाधारण गहराई और संवेदना से रूपायित किया है। कविता पढ़कर पाठक न केवल बारिश की प्रतीक्षा को समझता है, बल्कि उसमें छुपे सामाजिक संदर्भों, भावनात्मक लहरों और जीवन के प्रतीकों को भी महसूस करता है।(

यह कविता हमें यह सिखाती है कि सच्चा साहित्य वह होता है जो साधारण को असाधारण बना दे — और नागार्जुन ने यह काम बखूबी किया है। इसीलिए ‘बादल को घिरते देखा है’ हिंदी साहित्य की अमर कविताओं में एक मानी जाती है। (बादल को घिरते देखा है)


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‘पीत पत्रकारिता’ पर टिप्पणी

‘पीत पत्रकारिता’ पर टिप्पणी

21 April 2025 by Raja Krishna

पत्रकारिता का मूल उद्देश्य समाज को सही, संतुलित और निष्पक्ष जानकारी प्रदान करना है, ताकि जनता जागरूक, समझदार और सक्रिय बन सके। लेकिन जब पत्रकारिता अपने इस उद्देश्य से भटक जाती है और सनसनी, अफवाह, भ्रामक सूचनाओं या झूठे तथ्यों के आधार पर खबरें प्रस्तुत करती है, तो उसे “पीत पत्रकारिता” (Yellow Journalism) कहा जाता है। यह पत्रकारिता का वह स्वरूप है जो सत्य की जगह उत्तेजना, नैतिकता की जगह भ्रामकता, और जनहित की जगह निजी स्वार्थों को प्राथमिकता देता है।

पीत पत्रकारिता क्या है?

“पीत पत्रकारिता” उस पत्रकारिता को कहा जाता है जिसमें तथ्यों की पुष्टि किए बिना, भड़काऊ सुर्खियों, भावनात्मक प्रस्तुतियों और सनसनीखेज खबरों के ज़रिए लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश की जाती है। इसमें सत्य या तटस्थता का महत्व कम होता है, और लक्ष्य केवल पाठक या दर्शक संख्या बढ़ाना होता है।

यह शब्द 19वीं सदी के अमेरिका में शुरू हुआ, जब दो प्रमुख अखबारों—The New York World और The New York Journal—ने पाठकों को आकर्षित करने के लिए अतिरंजित, अर्धसत्य या झूठी खबरें छापनी शुरू कीं। आज यह समस्या वैश्विक बन चुकी है, और भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

पीत पत्रकारिता की विशेषताएँ

  1. सनसनीखेज शीर्षक – खबरों के शीर्षक इस तरह बनाए जाते हैं कि पाठक तुरंत क्लिक करें या अखबार खरीद लें, भले ही खबर का वास्तविक तथ्यों से कोई संबंध न हो।
  2. तथ्यों की अनदेखी – तथ्यों की पुष्टि किए बिना या उन्हें तोड़-मरोड़कर पेश करना इसकी एक आम प्रवृत्ति है।
  3. भय या उत्तेजना फैलाना – समाज में डर, नफ़रत, गुस्सा या संवेदना पैदा करने के लिए भ्रामक भाषा और चित्रों का प्रयोग।
  4. गोपनीयता और मर्यादा का उल्लंघन – किसी की निजी जिंदगी को सार्वजनिक कर देना, अफवाहों को खबर बना देना और नैतिक सीमाओं को लांघ जाना।
  5. मनोरंजन को खबर बनाना – वास्तविक मुद्दों की जगह सिनेमा, प्रेम-प्रसंग, विवाद और गॉसिप को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना।

पीत पत्रकारिता के प्रभाव

  1. जनता में भ्रम और असुरक्षा – असत्य या आधे-अधूरे तथ्यों पर आधारित खबरें लोगों में गलतफहमियाँ और भय फैलाती हैं।
  2. सामाजिक सौहार्द्र को नुकसान – जाति, धर्म, क्षेत्र या राजनीति से जुड़ी भ्रामक खबरें समाज में टकराव को जन्म देती हैं।
  3. विश्वसनीयता में गिरावट – जब मीडिया बार-बार गलत या झूठी खबरें परोसता है, तो उसकी साख जनता की नजरों में गिरती है।
  4. राजनीतिक और कॉर्पोरेट दबाव – पीत पत्रकारिता कभी-कभी राजनीतिक दलों या बड़े व्यापारिक घरानों के इशारे पर काम करती है, जिससे निष्पक्षता खत्म हो जाती है।

आज की स्थिति

वर्तमान समय में सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने पीत पत्रकारिता को और भी बढ़ावा दिया है। “क्लिकबेट” शीर्षक, वायरल ट्रेंड्स और फेक न्यूज़ इसके नए रूप बन गए हैं। अब पत्रकारिता का एक बड़ा हिस्सा टीआरपी, लाइक्स और व्यूज़ के पीछे भागने लगा है, जिससे समाज के लिए जरूरी मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।

समाधान क्या है?

  1. मीडिया साक्षरता – लोगों को यह समझना चाहिए कि हर खबर पर आँख मूंदकर भरोसा न करें। स्रोत की जांच करना ज़रूरी है।
  2. मीडिया की जवाबदेही – मीडिया संस्थानों को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए और भ्रामक सामग्री से बचना चाहिए।
  3. नियम और कानून – सरकार और प्रेस काउंसिल को चाहिए कि वे पत्रकारिता के मानकों का पालन न करने वालों पर कार्रवाई करें।
  4. स्वतंत्र और नैतिक पत्रकारिता को बढ़ावा – उन पत्रकारों और संस्थानों को प्रोत्साहित किया जाए जो निष्पक्ष और तथ्य आधारित पत्रकारिता करते हैं।

निष्कर्ष

‘पीत पत्रकारिता’ न केवल पत्रकारिता की साख को गिराती है, बल्कि लोकतंत्र और समाज के स्वास्थ्य के लिए भी खतरनाक है। जब मीडिया अपनी भूमिका को भूलकर केवल लाभ के पीछे भागता है, तो वह सूचना का स्रोत नहीं, बल्कि भ्रम और अस्थिरता का कारण बन जाता है। इसलिए आज ज़रूरत है जिम्मेदार, जागरूक और नैतिक पत्रकारिता की—जो सच बोले, समाज को जोड़ें और देश को मजबूत बनाए।

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