भारत में लघु उद्योग (Small Scale Industries – SSIs) ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में लोगों को रोज़गार देने, स्थानीय संसाधनों का उपयोग करने और आर्थिक विकास में योगदान देने वाले महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। ये उद्योग सीमित पूंजी, साधनों और श्रमशक्ति के साथ छोटे स्तर पर काम करते हैं। इनमें कपड़ा बुनाई, हस्तशिल्प, फर्नीचर, खाद्य प्रसंस्करण, कागज उत्पाद, रेडीमेड वस्त्र, चमड़ा उत्पाद आदि शामिल होते हैं।
हालाँकि लघु उद्योगों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, फिर भी इन्हें कई गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यहाँ हम भारत में लघु उद्योगों की दो मुख्य समस्याओं—वित्तीय संसाधनों की कमी और बाजार और विपणन की समस्या—का विस्तार से वर्णन कर रहे हैं।
1. वित्तीय संसाधनों की कमी (Lack of Financial Resources):
लघु उद्योगों की सबसे बड़ी समस्या होती है—पूंजी और वित्त की भारी कमी। ये उद्योग सीमित संसाधनों और पूंजी के साथ शुरू होते हैं। इनके पास बड़ी मशीनों, आधुनिक उपकरणों या तकनीक को अपनाने के लिए धन नहीं होता।
a) ऋण प्राप्त करने में कठिनाई:
लघु उद्योग चलाने वाले अक्सर छोटे व्यापारी, कारीगर या व्यक्तिगत उद्यमी होते हैं, जिनके पास बैंक गारंटी या संपत्ति नहीं होती। इस वजह से वे बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेने में असमर्थ रहते हैं। अगर ऋण मिलता भी है, तो प्रक्रिया बहुत जटिल और समय लेने वाली होती है।
b) उच्च ब्याज दरें:
जब लघु उद्यमियों को औपचारिक बैंकिंग व्यवस्था से ऋण नहीं मिल पाता, तो वे साहूकारों और निजी उधारदाताओं से कर्ज़ लेते हैं, जिनकी ब्याज दरें बहुत अधिक होती हैं। इससे उनका आधा मुनाफा ब्याज चुकाने में ही चला जाता है।
c) कार्यशील पूंजी की कमी:
लघु उद्योगों को कच्चे माल की खरीद, मजदूरी देने, मशीनों के रखरखाव और विपणन के लिए निरंतर पूंजी की ज़रूरत होती है। लेकिन उन्हें समय पर और पर्याप्त कार्यशील पूंजी नहीं मिलती, जिससे उत्पादन प्रक्रिया में रुकावट आती है।
d) सरकार की योजनाओं का लाभ न मिल पाना:
सरकार द्वारा चलाई जा रही कई योजनाएँ जैसे—PMEGP (प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम), MUDRA ऋण आदि—का लाभ लघु उद्यमियों तक नहीं पहुँच पाता, क्योंकि जानकारी का अभाव, भ्रष्टाचार और जटिल प्रक्रियाएँ उनकी पहुँच को सीमित कर देती हैं।
e) विस्तार और नवाचार में बाधा:
धन की कमी के कारण ये उद्योग अपने व्यवसाय का विस्तार नहीं कर पाते, नई तकनीक नहीं अपना पाते और प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं।
इस प्रकार वित्तीय संसाधनों की कमी लघु उद्योगों के अस्तित्व और विकास के लिए एक बड़ी रुकावट बनकर सामने आती है।
2. बाजार और विपणन की समस्या (Marketing and Market Access Problem):
दूसरी प्रमुख समस्या है—बाजार तक पहुँच और उत्पादों की बिक्री में कठिनाई। लघु उद्योगों में उत्पादन तो हो जाता है, लेकिन उन्हें अपने उत्पादों को उचित मूल्य पर बेचने के लिए बाज़ार नहीं मिल पाता।
a) ब्रांडिंग और प्रचार की कमी:
लघु उद्योगों के पास न तो मार्केटिंग में निवेश करने की क्षमता होती है और न ही उन्हें आधुनिक प्रचार माध्यमों की जानकारी होती है। उनके उत्पाद स्थानीय बाज़ार तक सीमित रहते हैं और राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं बना पाते।
b) प्रतिस्पर्धा का दबाव:
लघु उद्योगों को बड़े और संगठित उद्योगों से कड़ी प्रतिस्पर्धा मिलती है। बड़े उद्योग कम लागत में अधिक उत्पादन कर सकते हैं और ब्रांडेड माल बेचते हैं, जबकि लघु उद्योगों के उत्पाद गुणवत्ता और पैकेजिंग के मामले में पिछड़ जाते हैं।
c) बिचौलियों पर निर्भरता:
लघु उद्यमी अक्सर अपने उत्पाद बेचने के लिए बिचौलियों पर निर्भर रहते हैं, जो उत्पाद को सस्ते में खरीदकर अधिक कीमत पर बेचते हैं। इससे उत्पादक को उसका उचित मूल्य नहीं मिल पाता।
d) निर्यात में कठिनाई:
कई लघु उद्योग ऐसे उत्पाद बनाते हैं जिनकी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में मांग है, जैसे हस्तशिल्प, टेक्सटाइल, चमड़ा आदि। लेकिन निर्यात की प्रक्रिया जटिल और महंगी होने के कारण वे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार तक नहीं पहुँच पाते।
e) ई-कॉमर्स का लाभ न मिलना:
डिजिटल युग में भी अधिकांश लघु उद्यमी तकनीकी जानकारी के अभाव में ऑनलाइन बाज़ारों (जैसे Amazon, Flipkart, GeM) से नहीं जुड़ पाते, जिससे वे आधुनिक उपभोक्ता तक नहीं पहुँच पाते।
इस प्रकार, बाज़ार और विपणन की समस्याएँ लघु उद्योगों की बिक्री, मुनाफे और विस्तार में बड़ी बाधा बन जाती हैं। बिना मजबूत विपणन प्रणाली के ये उद्योग लंबे समय तक टिक नहीं पाते।
इन दोनों समस्याओं—वित्तीय संसाधनों की कमी और विपणन की चुनौती—का समाधान निकाले बिना भारत में लघु उद्योगों का समग्र और सतत विकास संभव नहीं है।