‘मीरा की प्रेम भावना’ पर टिप्पणी

मीरा बाई भक्ति काल की एक अनन्य प्रेमभक्त थीं, जिनकी भक्ति भावना पूरी तरह श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित थी। उनकी प्रेम भावना केवल एक भक्त का ईश्वर के प्रति अनुराग नहीं थी, बल्कि वह एक ऐसी आंतरिक ज्वाला थी जो सामाजिक बंधनों, परंपराओं, और लोक-लाज की दीवारों को तोड़कर केवल अपने आराध्य तक पहुँचना चाहती थी। मीरा का प्रेम ईश्वर से था, लेकिन वह प्रेम एक लौकिक प्रेम से भी अधिक गहराई और आत्मिकता से भरा था।

मीरा ने श्रीकृष्ण को केवल ईश्वर ही नहीं, अपना प्रेमी, पति, मित्र और स्वामी मान लिया था। वे कहती हैं —
“मैं तो सांवरिया के रंग राची।”
इस पंक्ति में उनकी भक्ति भावना के साथ-साथ प्रेम भावना का वह रंग दिखता है, जो संपूर्ण जीवन को डूबो देता है। मीरा की प्रेम भावना एकतरफा नहीं, बल्कि पूरी तरह समर्पित थी — जिसमें उन्होंने संसार से, परिवार से, मान-सम्मान से, यहाँ तक कि अपने शरीर से भी मुँह मोड़ लिया था।

मीरा का प्रेम विरह और मिलन दोनों की गहराई को छूता है। कृष्ण उनके लिए कभी दूर होते हैं, तो वे पीड़ा से भर जाती हैं —
“माने न मेरा जिया, रैन-दिन बिरह की पीर सहे।”
इस विरह में भी उनका प्रेम कमजोर नहीं पड़ता, बल्कि और अधिक सघन हो जाता है। वह विरह, प्रेम की कसौटी बन जाता है।

उनकी प्रेम भावना में साहस और स्वतंत्रता भी देखने को मिलती है। मीरा ने स्त्री के सीमित दायरे को लांघकर, एक राजा की बहू होते हुए भी दर-दर भटककर अपने आराध्य को ढूँढ़ा। समाज ने उन्हें पागल कहा, कुल-मान की हानि बताई, लेकिन मीरा ने हर सामाजिक बंधन को तोड़कर अपने प्रेम को प्राथमिकता दी। वे कहती हैं —
“लोकलाज तजि मेरे साँवरिया, मैं तो संग चलि रे।”
यहाँ मीरा की प्रेम भावना केवल आत्मा की पुकार नहीं है, वह एक नारी के साहसी निर्णय की प्रतीक भी है।

मीरा का यह प्रेम निर्वैयक्तिक होकर व्यापक हो जाता है, जिसमें उनका कृष्ण से प्रेम प्रतीक बन जाता है उस प्रेम का, जो अहंकार, स्वार्थ, द्वैत और भेदभाव से रहित हो। मीरा का प्रेम निर्मल, निष्कलंक और आत्मा से जुड़ा हुआ था।

उनकी प्रेम भावना को देखकर यह स्पष्ट होता है कि मीरा के लिए भक्ति और प्रेम अलग-अलग नहीं थे। उनकी भक्ति ही प्रेम थी और प्रेम ही ईश्वर था। उनके पदों में प्रेम एक ऐसी शक्ति के रूप में आता है, जो समाज को चुनौती देता है, लेकिन आत्मा को मुक्ति देता है।

इस तरह मीरा की प्रेम भावना एक ओर तो भक्त और भगवान के गहरे आत्मिक रिश्ते को दिखाती है, और दूसरी ओर एक स्त्री की अपनी पहचान और स्वतंत्र इच्छा का भी प्रतीक बन जाती है।

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