रस निष्पत्ति
परिचय:
भारतीय काव्यशास्त्र की सबसे मौलिक और मूलभूत अवधारणाओं में से एक है “रस”। आचार्य भरत मुनि द्वारा प्रतिपादित यह सिद्धांत नाट्यशास्त्र की आत्मा माना जाता है। रस वह भावात्मक अनुभव है जो पाठक, दर्शक या श्रोता किसी कलाकृति, विशेषकर साहित्य, नाटक या कविता के माध्यम से प्राप्त करता है। रस का उद्दीपन, उसका संचार, और अंततः उसका आस्वादन—यही रस निष्पत्ति कहलाता है। यह वह प्रक्रिया है जिससे काव्य पाठक के मन में गहराई तक उतरता है और उसे एक आनंददायक अनुभव प्रदान करता है।
1. रस की परिभाषा:
‘रस’ का शाब्दिक अर्थ है — स्वाद या आनंद। संस्कृत साहित्य में रस का तात्पर्य उस सौंदर्यात्मक भाव से है, जो काव्य या नाट्य में संप्रेषित होकर पाठक या दर्शक के भीतर एक विशिष्ट अनुभूति उत्पन्न करता है।
भरतमुनि के अनुसार –
“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।”
(नाट्यशास्त्र, अध्याय 6)
अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
2. रस निष्पत्ति के प्रमुख तत्व:
रस की निष्पत्ति एक जटिल, लेकिन स्वाभाविक प्रक्रिया है, जिसमें चार प्रमुख घटक होते हैं:
(क) स्थायी भाव (स्थायी भावना):
यह मनुष्य के हृदय में विद्यमान स्थायी मनोभाव है जैसे – रति, करुणा, क्रोध, भय आदि। यही आगे चलकर रस बनते हैं। स्थायी भाव रस का आधार है।
(ख) विभाव:
यह वह कारण होता है जो रसोत्पत्ति के लिए प्रेरक बनता है। विभाव दो प्रकार के होते हैं:
- आलंबन विभाव: वह पात्र जिससे भाव जाग्रत होता है (जैसे नायक या नायिका)।
- उद्दीपन विभाव: वह वातावरण जो उस भाव को उत्तेजित करता है (जैसे चंद्रमा, वसंत ऋतु, संगीत आदि)।
(ग) अनुभाव:
भावों की अभिव्यक्ति के लिए जो बाह्य चेष्टाएँ होती हैं, वे अनुभाव कहलाती हैं। जैसे – आँखों में आँसू आना, मुस्कराना, काँपना आदि।
(घ) व्यभिचारी भाव (संचारी भाव):
ये सहायक भाव होते हैं जो रस को गहराई देते हैं। जैसे – स्मृति, उन्माद, उद्वेग, लज्जा आदि। इनकी संख्या 33 मानी गई है।
इन सभी तत्वों के परस्पर सहयोग से जब पाठक या दर्शक के हृदय में स्थायी भाव की उत्तेजना होती है, और वह कला की दृष्टि से आनंद का अनुभव करता है, तभी रस की निष्पत्ति होती है।
3. रस के प्रकार:
प्राचीन आचार्यों ने नौ (और आधुनिक मतानुसार बारह) रसों की मान्यता दी है:
- श्रृंगार रस (रति) – प्रेम व सौंदर्य का रस।
- हास्य रस (हास) – हँसी, विनोद का रस।
- करुण रस (शोक) – दुःख, करुणा का भाव।
- रौद्र रस (क्रोध) – क्रोध, प्रतिशोध की भावना।
- वीर रस (उत्साह) – शौर्य, पराक्रम की अभिव्यक्ति।
- भयानक रस (भय) – डर, आतंक की अनुभूति।
- बीभत्स रस (जुगुप्सा) – घृणा या विकृति का रस।
- अद्भुत रस (आश्चर्य) – विस्मय का भाव।
- शांत रस (शम) – शांति, वैराग्य का भाव।
आधुनिक काव्यशास्त्र में वात्सल्य, भक्ति और वात्सल्य रस भी शामिल किए जाते हैं।
4. रस निष्पत्ति की प्रक्रिया:
रस निष्पत्ति एक अंतःक्रिया है जो लेखक (कवि), पाठ्य (काव्य), और पाठक (रसायित) के बीच घटती है। यह प्रक्रिया इस प्रकार होती है:
- कवि अपने अनुभव या कल्पना के आधार पर किसी स्थायी भाव को शब्दों, प्रतीकों, बिंबों द्वारा प्रस्तुत करता है।
- काव्य में वर्णित विभाव, अनुभाव आदि पाठक के अंतर्मन में उस स्थायी भाव की स्मृति या संवेदना को जाग्रत करते हैं।
- जब यह भाव पाठक के मन में इस प्रकार रम जाता है कि वह अपनी सीमाओं से मुक्त होकर उस भाव में लीन हो जाता है, तो वह रसास्वादन करता है।
रसास्वादन का भाव सार्वभौमिक होता है – जैसे किसी करुण कविता को पढ़कर हर कोई दुःखी होता है, भले ही वह उसकी अपनी स्थिति न हो। यही रस की सफलता है।
5. रस निष्पत्ति पर विभिन्न आचार्यों के मत:
(क) भरतमुनि:
उन्होंने रस को काव्य की आत्मा कहा और रस निष्पत्ति को विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से उत्पन्न माना।
(ख) आनंदवर्धन:
उन्होंने ‘ध्वनि सिद्धांत’ के माध्यम से कहा कि रस की निष्पत्ति काव्य में व्यंग्य (ध्वनि) के माध्यम से होती है। रस ध्वनि का आत्मा है।
(ग) अभिनवगुप्त:
इन्होंने रस को ‘रसायन’ कहा, और बताया कि रस एक ‘सामूहिक अनुभव’ है, जो शुद्ध होता है और सामान्यीकृत होता है।
(घ) भट्ट लोल्लट:
इन्होंने कहा कि रस निष्पत्ति दर्शक के मन में होती है, जब वह पात्रों के भावों से तादात्म्य स्थापित करता है।
(ङ) भट्ट नैयायक:
इनके अनुसार, रस केवल अनुभूति नहीं, बल्कि उसका ज्ञान होना भी आवश्यक है। रस बोध के बिना रस निष्पत्ति अधूरी है।
6. रस निष्पत्ति के उदाहरण:
उदाहरण – करुण रस:
“बालक गिरा भूमि पर, रो उठी माँ की चीख,
मूक पड़ी भीड़, नयन हुए नम।”
यहाँ करुण रस की निष्पत्ति होती है —
स्थायी भाव: शोक
आलंबन विभाव: माँ और बालक
उद्दीपन: गिरना, रोना
अनुभाव: आँखों से आँसू, चीत्कार
व्यभिचारी भाव: मोह, चिंता, व्याकुलता
उदाहरण – श्रृंगार रस:
“प्रेम भरी चितवन चुरा गई मन,
मृगनयनी की मुस्कान ने बांध लिया जन।”
यहाँ रति स्थायी भाव है, जो विभावों और अनुभावों से रस में बदल जाता है।
7. रस निष्पत्ति की आधुनिक प्रासंगिकता:
आज के समय में भी रस की अवधारणा उतनी ही प्रासंगिक है। फिल्म, थिएटर, कविता, उपन्यास, चित्रकला – सभी कलाओं में रस का संचार होता है। यहाँ तक कि विज्ञापन भी किसी न किसी रस को लक्ष्य कर बनाए जाते हैं। जैसे भावनात्मक विज्ञापन करुण रस या वात्सल्य रस का सहारा लेते हैं।
निष्कर्ष:
रस निष्पत्ति न केवल काव्यशास्त्र की एक तकनीकी अवधारणा है, बल्कि वह भारतीय साहित्य की आत्मा है। रस पाठक और रचनाकार के बीच एक भावनात्मक पुल का कार्य करता है। रस के माध्यम से काव्य केवल शब्दों का समूह न रहकर, हृदय को स्पर्श करने वाली अनुभूति बन जाता है। यही कारण है कि रस निष्पत्ति को काव्य की ‘आत्मिक प्रक्रिया’ कहा गया है। भरत से लेकर अभिनवगुप्त तक, सभी आचार्यों ने रस को सर्वोच्च स्थान दिया है। जब काव्य ‘रसात्मक’ होता है, तभी वह कालजयी बनता है।
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