‘रैदास की भक्ति भावना’ पर टिप्पणी

रैदास (या रविदास) भक्ति काल के महान संत-कवि थे, जिन्होंने हिंदी साहित्य को न केवल भाव-समृद्ध रचनाएँ दीं, बल्कि सामाजिक समानता, आत्मसम्मान और मानवीयता के मूल्यों को भी मजबूती से सामने रखा। उनकी भक्ति भावना किसी परंपरागत कर्मकांड या मंदिर-मूर्ति पूजा तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे भक्ति को मन की सच्चाई, आचरण की निर्मलता और आत्मा के शुद्ध समर्पण से जोड़ते हैं। रैदास की भक्ति भावना उनके सामाजिक अनुभव, संत परंपरा और ईश्वर के प्रति उनके व्यक्तिगत भावनात्मक संबंध का परिणाम है।

रैदास की भक्ति भावना मूलतः निर्गुण भक्ति के अंतर्गत आती है। वे ईश्वर को किसी मूर्ति या रूप में बाँधने के पक्ष में नहीं थे। उनके लिए भगवान रहिमन धागा प्रेम का की तरह कोमल, मगर अटूट संबंध थे। वे कहते हैं —
“मन चंगा तो कठौती में गंगा”,
जिसमें स्पष्ट है कि उनका विश्वास बाहरी आडंबरों में नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धता में था।

उनकी भक्ति का सबसे विशेष पक्ष यह था कि वह केवल धार्मिक नहीं थी, बल्कि सामाजिक चेतना से भी जुड़ी हुई थी। रैदास स्वयं एक दलित जाति में जन्मे थे और समाज में अस्पृश्यता और भेदभाव के शिकार रहे। इसलिए उनकी भक्ति में केवल ईश्वर की आराधना नहीं, बल्कि सामाजिक विषमता के प्रति एक तीखा प्रतिरोध भी है। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए यह कहा —
“ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न।
छोट-बड़ो सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न।।”

इसमें उनकी भक्ति भावना एक आदर्श समाज की कल्पना से जुड़ जाती है, जहाँ कोई ऊँच-नीच, जात-पाँत नहीं, केवल प्रेम और समता हो।

रैदास की भक्ति में सेवा, नम्रता, और निष्कलंक समर्पण की भावना है। वे स्वयं को दीन और अक्षम मानते हुए ईश्वर की शरण लेते हैं। यह आत्मनिष्ठ भक्ति उन्हें कबीर, दादू और नामदेव जैसे संतों की पंक्ति में खड़ा करती है। वे कहते हैं —
“प्रभुजी तुम चंदन हम पानी।
जाकी अंग-अंग बास समानी।।”

इसमें उनका भक्ति भाव ईश्वर से गहरे, परस्पर जुड़े रिश्ते को दर्शाता है, जहाँ भक्त और भगवान एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं।

रैदास की भक्ति भावना में निरहंकारिता और सच्चाई बहुत महत्त्वपूर्ण है। उनके लिए भक्ति केवल पूजा नहीं, बल्कि एक जीने का तरीका है — जिसमें कोई छल, कपट, दिखावा नहीं, बल्कि सच्चा समर्पण है। उनके पदों में यह बार-बार देखने को मिलता है कि भगवान केवल उसी के पास आते हैं जो सच्चे मन से पुकारता है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या सामाजिक स्थिति में क्यों न हो।

इस प्रकार रैदास की भक्ति भावना व्यक्ति, समाज और ईश्वर — तीनों को जोड़ने वाली भावना है, जो इंसान को भीतर से शुद्ध करती है और बाहर से समाज में समानता और प्रेम का संचार करती है।

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