“विधेयवाद क्या है? साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन में यह कहाँ तक उपयोगी है? विवेचना कीजिए।”


विधेयवाद (Positivism) एक ऐसी विचारधारा है जो समाज को वैज्ञानिक पद्धति से समझने और व्याख्यायित करने का पक्ष लेती है। यह दर्शन का एक आधुनिक रूप है जो यह मानता है कि केवल वही ज्ञान वास्तविक है जिसे अनुभव और परीक्षण के द्वारा प्रमाणित किया जा सके। विधेयवाद मूलतः विज्ञान के क्षेत्र में उभरा, लेकिन बाद में समाजशास्त्र, मानविकी और साहित्य के अध्ययन में भी इसका प्रभाव देखने को मिला।

जब हम साहित्य का अध्ययन समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से करते हैं, तो विधेयवाद हमारे लिए एक उपयोगी उपकरण के रूप में सामने आता है। यह साहित्य को महज भावनात्मक या कल्पनात्मक उत्पाद न मानकर, एक सामाजिक दस्तावेज के रूप में देखता है, जिसकी जड़ें समाज की ठोस परिस्थितियों में होती हैं।

अब हम विधेयवाद के मूल स्वरूप, उसकी विशेषताओं और साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन में उसकी उपादेयता पर विस्तार से विचार करेंगे।


1. विधेयवाद की संकल्पना

विधेयवाद की शुरुआत 19वीं शताब्दी में फ्रांसीसी दार्शनिक ऑगस्त कॉन्ते (Auguste Comte) ने की थी। उन्होंने मानव ज्ञान को तीन अवस्थाओं में बाँटा – धार्मिक अवस्था, दार्शनिक अवस्था और वैज्ञानिक या विधेयात्मक अवस्था। उनका कहना था कि किसी भी समाज के विकास की अंतिम अवस्था विधेयात्मक अवस्था होती है, जहाँ व्यक्ति या समाज किसी तथ्य को अंधविश्वास या अनुमान के आधार पर नहीं, बल्कि वैज्ञानिक परीक्षण और अनुभव के आधार पर समझता है।

कॉन्ते के अनुसार समाजशास्त्र को भी भौतिक विज्ञानों की तरह नियमबद्ध, कारण-परिणाम के आधार पर, और अनुभवसिद्ध तथ्यों के जरिए समझा जाना चाहिए। उनके बाद, इमाइल दुर्खीम (Emile Durkheim) जैसे समाजशास्त्रियों ने विधेयवाद को समाजशास्त्र की विधि के रूप में अपनाया और सामाजिक तथ्यों का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया।


2. साहित्य में विधेयवाद का प्रवेश

साहित्य पर विधेयवाद का प्रभाव उस समय स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा जब 19वीं सदी के यूरोपीय उपन्यासकारों ने समाज के यथार्थ को अपने लेखन में केंद्र में रखा। उन्होंने पात्रों, परिस्थितियों और सामाजिक ढाँचों का चित्रण इस तरह किया, जैसे वे किसी वैज्ञानिक दृष्टि से समाज का विश्लेषण कर रहे हों।

ज़ोला (Zola), बाल्ज़ाक (Balzac), फ्लॉबेयर (Flaubert) जैसे लेखक ‘नैचुरलिस्ट’ कहे गए, जिनका लेखन समाज की ठोस वास्तविकताओं पर आधारित था। इन्होंने साहित्य को एक सामाजिक प्रयोगशाला की तरह देखा जहाँ मनुष्य और समाज की क्रियाएँ, परिस्थितियों और परिवेश के अनुसार सामने आती हैं।

हिंदी साहित्य में भी प्रेमचंद जैसे यथार्थवादी लेखक विधेयात्मक दृष्टिकोण के अंतर्गत आते हैं, जिन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में समाज के आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं का वैज्ञानिक विश्लेषण किया।


3. विधेयवाद की विशेषताएँ

विधेयवाद को समझने के लिए उसकी कुछ मुख्य विशेषताओं पर ध्यान देना आवश्यक है:

  • तथ्य-आधारित विश्लेषण: विधेयवाद यह मानता है कि केवल वही ज्ञान प्रामाणिक है जिसे प्रत्यक्ष अनुभव और परीक्षण द्वारा सिद्ध किया जा सके।
  • कारण और प्रभाव: यह दृष्टिकोण समाज में घटने वाली हर घटना को किसी न किसी कारण का परिणाम मानता है।
  • तटस्थता: विधेयवादी दृष्टिकोण लेखक या शोधकर्ता को भावनात्मक या वैयक्तिक आग्रह से बचाकर वस्तुनिष्ठता की ओर ले जाता है।
  • विज्ञान का अनुकरण: विधेयवाद समाजशास्त्र और साहित्य को भी विज्ञान की तरह देखने का आग्रह करता है, जहाँ नियम, सिद्धांत और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण प्रधान हो।

4. साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन में विधेयवाद की उपयोगिता

अब प्रश्न उठता है कि जब हम साहित्य का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करते हैं, तब विधेयवाद कहाँ तक उपयोगी सिद्ध होता है। इस पर निम्नलिखित पहलुओं से विचार किया जा सकता है:

i. साहित्य को सामाजिक दस्तावेज मानने में सहायक

विधेयवादी दृष्टिकोण साहित्य को केवल एक भावनात्मक या सौंदर्यपरक अभिव्यक्ति नहीं मानता, बल्कि उसे समाज की ऐतिहासिक और वस्तुगत परिस्थितियों का प्रतिबिंब समझता है। इससे साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन आसान हो जाता है क्योंकि हम रचना को सामाजिक ढाँचे में रखकर उसकी व्याख्या कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए, प्रेमचंद की रचना ‘गोदान’ को यदि विधेयात्मक दृष्टि से देखा जाए तो यह भारतीय कृषक समाज के आर्थिक और सामाजिक संरचना का ठोस चित्रण है, जो भूमि व्यवस्था, जाति, पूंजीवाद और शोषण के अंतर्संबंधों को दर्शाती है।

ii. समाज में व्याप्त वर्ग-संघर्ष, जातिवाद, लैंगिक भेदभाव आदि को समझने में सहायक

विधेयवाद के कारणात्मक विश्लेषण से साहित्य में वर्णित सामाजिक विषमताओं को उनके मूल कारणों सहित देखा जा सकता है। दलित साहित्य, स्त्रीवादी साहित्य, और आदिवासी साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन में विधेयवाद एक मजबूत आधार देता है।

जैसे, ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ एक विशुद्ध सामाजिक अनुभव पर आधारित रचना है जिसे विधेयात्मक दृष्टिकोण से पढ़ने पर हमें दलित जीवन की सामाजिक-संरचनात्मक व्याख्या मिलती है।

iii. साहित्य और समाज के बीच द्वंद्वात्मक संबंध को स्पष्ट करना

विधेयवाद यह मानता है कि समाज और साहित्य एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, और यह प्रभाव कारण-परिणाम की श्रृंखला में होता है। साहित्य में जो घटनाएँ, पात्र, और मूल्य आते हैं, वे समाज की वास्तविक परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं।

जैसे, 1960 के बाद हिंदी साहित्य में जो युवा चेतना, शहरीकरण, राजनीतिक आंदोलन आदि का चित्रण बढ़ा, वह विधेयात्मक विश्लेषण से समाज में घट रही ठोस राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं की उपज के रूप में देखा जा सकता है।

iv. साहित्यिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण

किसी युग विशेष में साहित्य की कौन-सी प्रवृत्तियाँ प्रमुख थीं और क्यों थीं – इसका उत्तर विधेयात्मक विश्लेषण से मिल सकता है। जैसे, 1930–40 के दशक में प्रगतिशील आंदोलन का उदय, द्वितीय विश्व युद्ध, स्वतंत्रता संग्राम और समाजवाद की विचारधारा से प्रेरित था।

विधेयवाद हमें इन ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों को रेखांकित करने में मदद करता है, जिससे साहित्य को केवल भावनाओं का उत्पाद मानने की सीमित दृष्टि से हम मुक्त हो सकते हैं।

v. साहित्य में लेखक की भूमिका की व्याख्या

विधेयवाद लेखक को भी एक सामाजिक उत्पाद मानता है – उसके विचार, दृष्टिकोण, जीवन-दृष्टि, सब उसके समाज और समय से प्रभावित होते हैं। इसलिए विधेयात्मक दृष्टिकोण से लेखक को भी एक अध्ययन की वस्तु माना जाता है।

उदाहरण के लिए, हरिशंकर परसाई की व्यंग्यात्मक शैली, उनके जीवनानुभवों और सामाजिक परिवेश से उपजी थी। उनका लेखन विधेयात्मक दृष्टिकोण से समाज की विसंगतियों का विश्लेषण करता है।


5. विधेयवाद की सीमाएँ और आलोचनाएँ

हालाँकि विधेयवाद साहित्यिक समाजशास्त्र में उपयोगी है, पर इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं, जिनका उल्लेख करना आवश्यक है:

  • यह कल्पना, भावनाओं, प्रतीकों और भाषा की सूक्ष्मताओं की उपेक्षा करता है।
  • यह लेखक की आत्मानुभूति और वैयक्तिक दृष्टिकोण को नगण्य समझता है, जबकि साहित्य में ये तत्व अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं।
  • हर साहित्यिक रचना को वस्तुनिष्ठ तथ्यों में बाँधना संभव नहीं, क्योंकि उसमें सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और प्रतीकात्मक स्तर पर भी अर्थ निहित होते हैं।

इन्हीं कारणों से बाद में संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद, रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी आदि नए सिद्धांत सामने आए, जो साहित्य को विविध कोणों से देखने की कोशिश करते हैं।


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