शास्त्रीय समष्टि अर्थशास्त्र की दो मुख्य मान्यताएँ बताइए।


शास्त्रीय समष्टि अर्थशास्त्र की दो मुख्य मान्यताएँ

शास्त्रीय समष्टि अर्थशास्त्र (Classical Macroeconomics) 18वीं और 19वीं सदी में विकसित एक प्रमुख आर्थिक विचारधारा है, जिसके प्रमुख अर्थशास्त्री एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो, जॉन स्टुअर्ट मिल आदि थे। इस सिद्धांत की प्रमुख विशेषता यह है कि यह बाजार की स्वचालित कार्यप्रणाली और सरकारी हस्तक्षेप की न्यूनतम भूमिका में विश्वास करता है। शास्त्रीय अर्थशास्त्र की अनेक मान्यताएँ हैं, लेकिन समष्टि (macroeconomics) के स्तर पर इसकी दो प्रमुख मान्यताएँ निम्नलिखित हैं:

1. मज़दूरी एवं मूल्य की लचीलापन (Flexibility of Wages and Prices)

शास्त्रीय अर्थशास्त्र की पहली और सबसे महत्वपूर्ण मान्यता यह है कि मज़दूरी (wages) और मूल्य (prices) लचीले होते हैं। इसका अर्थ है कि जब भी किसी कारण से अर्थव्यवस्था में असंतुलन उत्पन्न होता है, जैसे कि बेरोजगारी या अधिक उत्पादन, तो मज़दूरी और कीमतें अपने-आप समायोजित होकर संतुलन की स्थिति को पुनः स्थापित कर देती हैं।

उदाहरण के तौर पर, यदि किसी उद्योग में बेरोजगारी बढ़ जाती है, तो शास्त्रीय सिद्धांत मानता है कि समय के साथ मजदूरी दरें घट जाएँगी, जिससे कंपनियाँ अधिक श्रमिकों को नियुक्त करने लगेंगी और बेरोजगारी समाप्त हो जाएगी। इसी तरह, यदि किसी वस्तु का उत्पादन अधिक हो गया है और माँग कम है, तो उसकी कीमत कम हो जाएगी, जिससे माँग बढ़ेगी और संतुलन बन जाएगा।

यह विचार “Say’s Law” पर आधारित है, जिसमें कहा गया है – “Supply creates its own demand” अर्थात उत्पादन ही माँग उत्पन्न करता है। इसके अनुसार कोई भी वस्तु जब उत्पादन होती है, तो वह उत्पादन की प्रक्रिया में उपयोग होने वाले संसाधनों (जैसे श्रम, पूंजी) को आय में बदल देती है, जो फिर खर्च के रूप में बाजार में लौटती है। इस प्रकार, बाजार में कोई दीर्घकालीन मांग की कमी नहीं हो सकती, और बेरोजगारी या मंदी जैसी स्थितियाँ अस्थायी होती हैं।

शास्त्रीय दृष्टिकोण में सरकार को मज़दूरी या कीमतों को नियंत्रित नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये बाजार की ताक़तों के अनुसार स्वयं नियंत्रित होते हैं।

2. स्वतः संतुलन की प्रवृत्ति (Self-Correcting Mechanism of Economy)

शास्त्रीय समष्टि अर्थशास्त्र की दूसरी मुख्य मान्यता यह है कि अर्थव्यवस्था में स्वतः संतुलन की प्रवृत्ति होती है। इसका अर्थ है कि यदि अर्थव्यवस्था में किसी कारण से असंतुलन उत्पन्न हो जाए, तो बाजार की शक्तियाँ—मूल्य और मज़दूरी की लचीलापन के कारण—स्वतः उस असंतुलन को समाप्त कर देती हैं और अर्थव्यवस्था पुनः अपने पूर्ण रोजगार (full employment) के स्तर पर लौट आती है।

इस विचारधारा के अनुसार, आर्थिक मंदी या अवसाद जैसी स्थितियाँ दीर्घकालीन नहीं होतीं। जैसे ही उत्पादन घटता है और बेरोजगारी बढ़ती है, तो कंपनियाँ मज़दूरी कम करती हैं और संसाधनों की कीमतें घटती हैं, जिससे निवेश और उत्पादन में वृद्धि होती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त नहीं हो जाती।

इस सिद्धांत में सरकार की भूमिका बहुत सीमित मानी जाती है। शास्त्रीय अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार द्वारा हस्तक्षेप जैसे कि राजकोषीय नीति (fiscal policy) या मौद्रिक नीति (monetary policy) की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ऐसी नीतियाँ प्राकृतिक समायोजन प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं। उनका मानना है कि बाजार स्वयं अपनी शक्तियों से समस्याओं का समाधान कर सकता है।

शास्त्रीय दृष्टिकोण यह भी मानता है कि सभी संसाधन—मजदूरी, पूंजी, भूमि—पूर्ण रूप से उपयोग में रहते हैं। यदि कभी अस्थायी रूप से ये संसाधन बेकार पड़े हों, तो भी बाजार की स्वचालित व्यवस्था उन्हें शीघ्र ही उपयोग में ले आएगी।


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