संदर्भ:
यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के आरंभिक बालकांड के मंगलाचरण का एक हिस्सा है। यह पंक्ति तुलसीदास जी द्वारा अपने गुरु को प्रणाम करते हुए कही गई है। रामचरितमानस की भूमिका में तुलसीदास पहले भगवान, गुरु, ज्ञान, भक्ति और समाज के विविध पहलुओं को प्रणाम करते हैं और उन्हें अपनी रचना का आधार बनाते हैं। यह पंक्ति उनके गुरु-स्तुति खंड में आती है, जिसमें वे गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा, आस्था और कृतज्ञता प्रकट कर रहे हैं।
शब्दार्थ और भावार्थ:
- “संबउँ” = मैं वंदना करता हूँ / प्रणाम करता हूँ।
- “गुरु पद कंज” = गुरु के चरण-कमल।
- “कृपा सिंधु” = कृपा के समुद्र।
- “नररूप हरि” = मनुष्य रूप में हरि (ईश्वर) स्वरूप।
- “महामोह तम पुंज” = गहरे मोह और अज्ञान का अंधकार।
- “जासु वचन रवि कर निकर” = जिनके वचनों का समूह सूर्य किरणों के समान है।
इसका भावार्थ है:
“मैं अपने गुरु के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र हैं और मनुष्य रूप में स्वयं भगवान हैं। जिनके वचनों का समूह सूर्य की किरणों की तरह है, जो गहन मोह और अज्ञान के अंधकार को दूर कर देता है।”
व्याख्या:
तुलसीदास इस पंक्ति में अपने गुरु की महिमा का अत्यंत सुंदर वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि मैं अपने गुरु के चरणों की वंदना करता हूँ, क्योंकि गुरु संसार में कृपा का वह स्रोत हैं, जो मनुष्य रूप में ईश्वर के समान हैं। यह भक्ति परंपरा की परिपाटी रही है कि गुरु को ईश्वर का स्वरूप माना जाता है, क्योंकि वही शिष्य को आत्मिक अंधकार से बाहर निकालते हैं।
यहाँ तुलसीदास गुरु के वचनों की तुलना सूर्य की किरणों से करते हैं। जिस प्रकार सूरज की रोशनी गहरे अंधकार को दूर कर देती है, वैसे ही गुरु के उपदेश अज्ञान, मोह और भ्रम की कालिमा को नष्ट कर देते हैं। अज्ञान और मोह — ये ही मनुष्य को संसार में बांधने वाले सबसे बड़े बंधन हैं। जब तक व्यक्ति इनसे ग्रसित रहता है, वह सत्य को नहीं देख पाता। गुरु अपने वचनों, उपदेशों और कृपा से इस अंधकार को छिन्न-भिन्न कर देते हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि तुलसीदास ने गुरु को “नररूप हरि” कहा है, अर्थात् मनुष्य रूप में भगवान। इसका तात्पर्य यह है कि ईश्वर तो साक्षात दिखाई नहीं देते, लेकिन गुरु उसी ईश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे ही मार्गदर्शक, उद्धारक और प्रकाशदाता हैं। इसलिए तुलसीदास गुरु की स्तुति में अत्यंत श्रद्धा और समर्पण से यह पंक्ति कहते हैं।
यह पंक्ति केवल काव्य सौंदर्य का प्रतीक नहीं है, बल्कि भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गुरु के स्थान को रेखांकित करने वाली अत्यंत गहन और प्रभावशाली अभिव्यक्ति है। तुलसीदास जैसे संत कवि के लिए गुरु केवल शिक्षावाचक नहीं, बल्कि आत्मा के विकास और परमात्मा तक पहुँचने का माध्यम हैं।
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