संस्कृतसाहित्ये लेखिकाः
इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 10 की संस्कृत के अध्याय 4 संस्कृतसाहित्ये लेखिकाः(Sanskrit Sahitye Lekhikah Path Sanskrit Class 10) के अर्थ को आसान भाषा में समझेंगे। लाइन बाई लाइन सरल भाषा में अर्थ और साथ ही सारे पश्नो के उत्तर को पढ़ेंगे। (संस्कृतसाहित्ये लेखिकाः)
पाठ परिचय
संस्कृत साहित्य लेखन कार्य जिस प्रकार पुरुषों ने की है उसी प्रकार स्त्रियाँ ने भी की है। वैदिक युग से आजतक स्त्रियाँ संस्कृत साहित्य को संवर्धित कर रही है। प्रस्तुत पाठ में संक्षिप्त रूप से संस्कृत की प्रमुख लेखिकाओं का उल्लेख किया गया है। इनका योगदान संस्कृत साहित्य में अमर है।(संस्कृतसाहित्ये लेखिकाः)
भूमिका
समाजस्य यानं पुरुषैः नारीभिः च चलति। साहित्ये अपि उभयोः समानं महत्वम्। अधुना सर्वभाषासु साहित्यरचनायां स्त्रियः अपि तत्पराः सन्ति यशः च लभन्ते। संस्कृतसाहित्ये प्राचीनकालात् एव साहित्यसमृद्धौ योगदानं न्यूनाधिकं प्राप्यते। अस्मिन् पाठे अतिप्रसिद्धानां लेखिकानामेव चर्चा वर्तते येन साहित्यनिधिपूरणे तासां योगदानं ज्ञायेत।
भूमिका का अर्थ
समाज की गाड़ी पुरुषों और स्त्रीयों के द्वारा चलती है। साहित्य में भी दोनों का समान महत्व है। इस समय सभी भाषाओं में साहित्य रचना में स्त्रियाँ भी तत्पर हैं और यश भी प्राप्त रही है। संस्कृत साहित्य में प्राचीन काल से ही साहित्य को समृद्ध करने में दोनों का योगदान कम- अधिक प्राप्त होता है। इस पाठ में अत्यंत प्रसिद्ध लेखिकाओं के नाम का ही चर्चा है जिससे साहित्यरूपी खजाना को भरने में उनका योगदान के ज्ञात होता है।
पाठ
विपुलं संस्कृतसाहित्यं विभिन्नैः कविभिः शास्त्रकारैः च संवर्धितम्। वैदिकालादारभ्य शास्त्राणां काव्यानाम् च रचने संरक्षणे च यथा पुरुषाः दत्तचिताः अभवन् तथैव स्त्रिऽपि दत्तावधानाः प्राप्यन्ते। वैदिकयुगे मन्त्राणां दर्शका न केवला ऋषयः, प्रत्युत ऋषिका अपि सन्ति । ऋग्वेदे चतुर्विंशतिः थर्ववेदे च पञ्च ऋषिकाः मन्त्रदर्शनवत्यो निर्दिश्यन्ते यथा यमी, अपाला, उर्वशी, इन्द्राणी, वागाम्भृणी इत्यादयः ।
अर्थ
विपुल (विशाल) संस्कृत साहित्य विभिन्न कवियों और शास्त्रकारों द्वारा समृद्ध किया गया। वैदिक काल के आरंभ से शास्त्रों और काव्यों की रचना और संरक्षण में जिस प्रकार पुरुषों के योगदान प्राप्त हुए है उसी प्रकार स्त्रियों के भी योगदान प्राप्त होते है। वैदिक युग में मन्त्रों के जानकार न केवल ऋषि बल्कि ऋषि-पत्नियाँ भी है। ऋग्वेद में चौबीस और अथर्वेद के पाँच ऋषि-पत्नियाँ मन्त्रों के जानकार के रूप में निर्देशित की गई है। जैसे यमी, अपाला, उर्वशी, इन्द्राणी, वागाम्भृणी आदि।
पाठ
बृहदारण्यकोपनिषदि याज्ञवल्क्यस्य पत्नी मैत्रेयी दार्शनिकरुचिमती वर्णिता यां याज्ञवल्क्य आत्मतत्वं शिक्षयति । जनकस्य सभायां शास्त्रार्थकुशला गार्गी वाचक्नवी तिष्ठति स्म। महाभारते अपि जीवनपर्यन्तं वेदान्त अनुशीलनपरायाः सुलभाया वर्णनं लभ्यते ।
अर्थ
वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी दार्शनिक रुचिमति के रूप में वर्णित है। जिनको याज्ञवल्क्य आत्मतत्व की शिक्षा देते है। जनक की सभा में शास्त्रार्थ कुशल गार्गी नमक विदुषी रहती थी। महाभारत में भी आजीवन वेदांतों का अनुशीलन करने वाली स्त्रियों का सुलभ वर्णन प्राप्त होता है।
पाठ
लौकिकसंस्कृतसाहित्ये प्रायेण चत्वारिंशत् कवयित्रीणां सार्धशतं पद्यानि स्फुटरूपेण इतस्ततो लभ्यन्ते। तासु विजयाड्का प्रथम-कल्पा वर्तते। सा च श्यामवर्णा आसीत् इति पद्येनानेन स्फुटीभवति-
अर्थ
लौकिक संस्कृत साहित्य में प्रायः चालीस कवयित्रियों का डेढ़ सौ पद स्पष्ट रूप से इधर उधर प्राप्त होते है। उनमें विजयांका का प्रथम कल्प है और वह श्यामवर्ण की थी। यह इस पद से स्पष्ट होता है –
श्लोक
नीलोत्पलदलश्यामां विजयाङ्ङ्कामजानता। वृथैव दण्डिना प्रोक्ता ‘सर्वशुक्ला सरस्वती’ ।।
अर्थ
नीले कमल के समान श्यामवर्ण की विजयाङ्ङ्ङ्का को न जानते हुए सरस्वती को सर्वशुक्ला दण्डी द्वारा व्यर्थ ही कहा गया।
पाठ
तस्याः कालः अष्टमशतकम् इति अनुमीयते। चालुक्यवंशीयस्य चन्द्रादित्यस्य राज्ञी विजयभट्टारिकैव विजयाङ्का इति मन्यते । किञ्च शीला भट्टारिका, देवकुमारिका, रामभद्राम्बा-प्रभृतयो दक्षिण भारतीयाः संस्कृतलेखिकाः स्वस्फुटपयैः प्रसिद्धाः ।
अर्थ
उसका कल आठवीं सदी है, ऐसा अनुमान किया जाता है। चालुक्य वंश के चंद्रादित्य की रानी विजयभट्टारिका ही विजयांका है, ऐसा बहुत मानते है। और शीला भट्टारिका, देवकुमारी, रामभद्राम्बा इत्यादि जैसी दक्षिण भारतीय संस्कृत लेखिका अपने स्पष्ट पदों से प्रसिद्ध है।
पाठ
विजयनगरराज्यस्य नरेशाः संस्कृतभाषासंरक्षणाय कृतप्रयासा आसन्न इति विदितमेव । तेषामन्तःपुरे अपि संस्कृतरचनाकुशलाः राज्ञयोः अभवन् । कम्पणरायस्य (चतुर्दशशतकम्) राज्ञी गंगादेवी ‘मधुराविजयम्’ इति महाकाव्यं स्वस्वामिनो (मदुरै) विजयघटनाम् आश्रित्य अरचयत्। तत्र अलङ्काराणां संनिवेशः आवर्जको वर्तते ।
अर्थ
विजय नगर राज्य के राजा संस्कृत भाषा के संरक्षण के लिए प्रयास किए थे, ऐसा विदित ही है। उनके अंतरपुर में भी संस्कृत रचना में कुशल रानियाँ हुई। कम्पणराय (चौदहवीं सदी) की रानी गंगा देवी ने मधुराविजयम् महाकाव्य को अपने स्वामी की (मदुरै) विजय घटना के आश्रित करके लिखा है। वहां अलंकारों की प्रयोग आकर्षण है।
पाठ
तस्मिन्नेव राज्ये षोडशशतके शासनं कुर्वतः अच्युतरायस्य राज्ञी तिरुमलाम्बा वरदाम्बिकापरिणय- नामकं प्रौढ़ चम्पूकाव्यम् अरचयत्। तत्र संस्कृतगद्यस्य छटा समस्तपदावल्या ललितपदविन्यासेन च अतीव शोभते । संस्कृतसाहित्ये प्रयुक्तं दीर्घतमं समस्तपदमपि तत्रैव लभ्यते ।
अर्थ
उसी राज्य में सोलहवीं शताब्दि में शासन करते हुए अच्युतराय की रानी तिरुमलांबा वरदांबिकापरिणय नामक प्रौढ़ चम्पू काव्य को लिखा । वहां संस्कृत गद्य की छटा समस्त पदावली से और सुंदर पद विन्यास से सुंदर लगता है। संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त सबसे बड़ा समस्त पद भी वहीं प्राप्त होता है।
पाठ
आधुनिककाले संस्कृतलेखिकासु पण्डिता क्षमाराव (1890-1953 ई०) नामधेया विदुषी अतीव प्रसिद्धा। तया स्वपितुः शंकरपाण्डुरंगपण्डितस्य महतो विदुषो जीवनचरितं ‘शंकरचरितम्’ इति रचितम्। गान्धिदर्शनप्रभाविता सा सत्याग्रहगीता, मीरालहरी, कथामुक्तावली, विचित्रपरिषद्द्यात्रा, ग्रामज्योतिः इत्यादीन् अनेकान् पद्य-पद्यग्रन्थान् प्रणीतवती ।
अर्थ
आधुनिक काल में संस्कृत लेखिकाओं में पंडिता क्षमाराव (1890-1953 ईस्वी) नामक विदुषी अत्यंत प्रसिद्ध है। उनके द्वारा अपने पिता महान विद्वान शंकर पाण्डुरंग पण्डित का जीवन चरित्र शंकरचरितम् लिखा गया। गाँधी दर्शन से प्रभावित होकर उन्होंने सत्याग्रहगीता, मीरालहरी, कथामुक्तावली, विचित्रपरिषदयात्रा, ग्रामज्योति इत्यादि अनेक गद्द्य पद्म ग्रंथों को लिखा।
पाठ
वर्तमानकाले लेखनरतासु कवयित्रीषु पुष्पादीक्षित-वनमाला भवालकर मिथिलेश कुमारी मिश्र-प्रभृतयोऽनुदिनं संस्कृतसाहित्यं पूरयन्ति ।
अर्थ
वर्तमान काल में लेखनरत कवयित्रियों में पुष्पादीक्षित, वनमाला भवालकर, मिथिलेश कुमारी मिश्र, आदि प्रति दिन संस्कृत साहित्य की पूर्ति कर रही हैं।
(संस्कृतसाहित्ये लेखिकाः)
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