संस्कृत नाटक की विकास परम्परा पर प्रकाश डालिए।

संस्कृत साहित्य में नाटक का एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। नाटक केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं रहा, बल्कि यह भारतीय समाज, संस्कृति, धर्म, और दर्शन की गूढ़ बातों को प्रस्तुत करने का एक सशक्त माध्यम भी रहा है। संस्कृत नाट्य परम्परा का विकास भारतीय साहित्य की सबसे गौरवपूर्ण उपलब्धियों में से एक है। इसकी शुरुआत वैदिक काल से मानी जाती है और कालान्तर में भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ ने इस परम्परा को एक मजबूत आधार प्रदान किया।

नाटक की उत्पत्ति

संस्कृत नाटक की उत्पत्ति धार्मिक अनुष्ठानों और काव्यात्मक अभिव्यक्तियों से हुई मानी जाती है। वैदिक काल में यज्ञों और अनुष्ठानों में जो संवाद, गीत और अभिनय होते थे, वे नाटक की आदिम अवस्था के रूप में देखे जा सकते हैं। ‘नाट्यशास्त्र’ के अनुसार नाटक की रचना स्वयं ब्रह्मा ने की थी और यह वेदों का सार है। इसमें ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लिया गया।

भरत मुनि और नाट्यशास्त्र

संस्कृत नाटक की व्यवस्थित परम्परा भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ से आरम्भ होती है। यह ग्रंथ लगभग ईसा पूर्व 2वीं से 1वीं शताब्दी के बीच रचा गया माना जाता है। इसमें नाट्यकला के सभी पहलुओं जैसे नाटक की रचना, पात्र-निर्माण, अभिनय, संगीत, नृत्य, रंगमंच की रचना आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। भरत मुनि ने नाट्य को ‘पंचम वेद’ कहा है, जो सभी वर्गों के लोगों के लिए उपयुक्त है।

‘नाट्यशास्त्र’ में रसा की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। भरत ने 8 रसों की बात की है — श्रृंगार, करुण, वीर, रौद्र, हास्य, भयानक, वीभत्स और अद्भुत। बाद में आचार्य अभिनवगुप्त ने नवम रस ‘शांत रस’ को जोड़ा। रस नाटक की आत्मा मानी गई है और पात्रों के व्यवहार, संवाद, संगीत, वेशभूषा, आदि सब कुछ रस की अभिव्यक्ति में सहायक माना गया है।

प्रारम्भिक संस्कृत नाटक

प्रारम्भिक संस्कृत नाटकों में धर्म और नीति की प्रधानता थी। इन नाटकों में लोक-आस्था, पौराणिक कथाएँ, और धार्मिक तत्वों का समावेश था। इनमें नायक या तो राजा होते थे या कोई धर्मपरायण ब्राह्मण। इस समय के नाटकों का उद्देश्य नीतिपरक शिक्षा देना और समाज को नैतिक मार्ग दिखाना होता था।

भास, कालिदास, शूद्रक, विशाखदत्त, भवभूति, हर्षवर्धन, और राजशेखर आदि संस्कृत नाटककारों ने इस परम्परा को समृद्ध किया।


प्रमुख संस्कृत नाटककार और उनके योगदान

1. भास (ईसा पूर्व 2वीं शताब्दी या ईसा की आरंभिक शताब्दी)

भास संस्कृत के प्राचीनतम नाटककार माने जाते हैं जिनके 13 नाटक उपलब्ध हैं। उनके नाटकों में ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘प्रतीमनाटकम्’, ‘बालचरितम्’, ‘दूतवाक्यम्’, ‘कर्णभारम्’ आदि प्रमुख हैं। भास के नाटक भावप्रवण, नीतिपरक और सामाजिक यथार्थ से जुड़े होते हैं। उन्होंने परंपरागत कथाओं में मौलिक परिवर्तनों से नाटकीयता को उभारा।

2. कालिदास (ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी)

कालिदास को संस्कृत साहित्य का शिरोमणि माना जाता है। उनकी तीन प्रमुख नाट्यकृतियाँ हैं —

  • ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ (शकुंतला और दुष्यंत की प्रेमकथा)
  • ‘मालविकाग्निमित्रम्’
  • ‘विक्रमोर्वशीयम्’

कालिदास की भाषा सरल, संस्कारित, रसयुक्त और सौंदर्य से भरपूर होती है। उनके नाटकों में काव्यात्मकता, प्रकृति-चित्रण, भावनाओं की गहराई और समाज का कलात्मक चित्रण मिलता है। ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ को विश्व साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त है और इसका अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

3. शूद्रक (लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी)

शूद्रक का एकमात्र प्रसिद्ध नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ (मिट्टी की गाड़ी) है। यह नाटक अपनी सामाजिक दृष्टि, यथार्थ चित्रण, विविध पात्रों की प्रस्तुति और व्यंग्यात्मक शैली के लिए प्रसिद्ध है। इसमें ब्राह्मण, वेश्या, चोर, दरबारी, गणिका, और अन्य विविध सामाजिक वर्गों के पात्र हैं, जो इसे लोकजीवन से जोड़ते हैं।

4. विशाखदत्त (लगभग 5वीं शताब्दी)

विशाखदत्त का सबसे प्रमुख नाटक है ‘मुद्राराक्षस’, जो चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य के राजनीतिक संघर्षों पर आधारित है। इसमें राजनीतिक कूटनीति, षड्यंत्र और राज्यशक्ति का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण किया गया है। विशाखदत्त के नाटकों की विशेषता है उनकी गंभीरता, ऐतिहासिकता और राजनीतिक यथार्थ।

5. भवभूति (8वीं शताब्दी)

भवभूति के तीन प्रसिद्ध नाटक हैं —

  • ‘उत्तररामचरितम्’
  • ‘महावीरचरितम्’
  • ‘मालतीमाधवम्’

भवभूति के नाटकों में उच्च विचार, गम्भीर भावनाएँ और दर्शन की प्रधानता मिलती है। वे राम और सीता के उत्तर जीवन पर आधारित ‘उत्तररामचरित’ में करुण रस की चरम अभिव्यक्ति करते हैं। उनकी भाषा गंभीर, ओजपूर्ण और भावप्रवण होती है।

6. हर्षवर्धन (7वीं शताब्दी)

सम्राट हर्षवर्धन स्वयं भी संस्कृत नाटककार थे। उन्होंने ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’, और ‘नागानंद’ नामक तीन नाटक लिखे। ये नाटक मनोरंजक, काव्यात्मक तथा नीति से परिपूर्ण हैं। ‘नागानंद’ बौद्ध भावना से प्रेरित है और करुण रस की अभिव्यक्ति करता है।

7. राजशेखर (9वीं-10वीं शताब्दी)

राजशेखर ने ‘बालरामायण’, ‘कर्पूरमंजरी’ आदि नाटक लिखे। कर्पूरमंजरी का विशेष महत्व है क्योंकि यह अपभ्रंश भाषा में रचित है। उन्होंने संस्कृत नाट्य परम्परा को अपभ्रंश और लोक-भाषा से जोड़ने का प्रयास किया।


संस्कृत नाटक की विशेषताएँ

  1. धार्मिक एवं नैतिक दृष्टिकोण – संस्कृत नाटक केवल मनोरंजन नहीं करता, वह धर्म, नीति और सामाजिक मर्यादाओं की शिक्षा भी देता है।
  2. रसप्रधानता – नाटकों में भावनाओं की प्रधानता होती है। भरत के अनुसार रस ही नाटक की आत्मा है।
  3. चरित्रों की विविधता – संस्कृत नाटकों में राजा, ब्राह्मण, मंत्री, गणिका, सेवक, विदूषक, राक्षस, देवता आदि विविध चरित्रों का चित्रण मिलता है।
  4. विदूषक की भूमिका – संस्कृत नाटकों की एक अनूठी विशेषता विदूषक की उपस्थिति है, जो हास्य उत्पन्न करता है और नायक का साथी होता है।
  5. भाषा का प्रयोग – संस्कृत नाटकों में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का भी प्रयोग हुआ है। उच्च कुल के पात्र संस्कृत बोलते हैं, जबकि निम्नवर्गीय पात्र प्राकृत या देशज भाषाएँ।
  6. प्राकृतिक वर्णन – कालिदास जैसे नाटककारों ने प्रकृति-चित्रण को एक नयी ऊँचाई दी है।
  7. संवाद शैली – नाटकों की भाषा काव्यात्मक, भावपूर्ण और सम्वादात्मक होती है। संवादों में नीति, दर्शन और समाज का सार भी झलकता है।

विकास की दिशा में योगदान

संस्कृत नाटक की परम्परा ने भारतीय रंगमंच की नींव रखी। यद्यपि मुस्लिम आक्रमणों और सामाजिक परिवर्तन के कारण मध्यकाल में यह परम्परा क्षीण हो गई, परन्तु इसकी पुनः जागृति आधुनिक भारत में हुई। संस्कृत नाटक आज भी नाट्य विद्यालयों, विश्वविद्यालयों और अकादमिक मंचों पर अध्ययन और मंचन का विषय बना हुआ है।


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