सामन्तवाद एक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था है, जो मुख्य रूप से मध्यकालीन युग में देखने को मिलती है, खासकर यूरोप और भारत जैसे देशों में। इस व्यवस्था में समाज को विभिन्न वर्गों में बाँटा गया होता है और ज़मीन के स्वामित्व के आधार पर सत्ता, अधिकार और कर्तव्य निर्धारित किए जाते हैं। सामन्तवाद का मूल आधार भूमि और उस पर मालिकाना हक़ है, जिसके द्वारा सामाजिक संबंध तय होते हैं।
सबसे पहले, सामन्तवाद को समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि इसमें सत्ता का केन्द्र राजा होता है, लेकिन वह पूरी ज़मीन और शासन को अकेले नहीं चला सकता। इसलिए वह अपने विश्वासपात्रों, सैनिकों या सामन्तों को ज़मीन का एक भाग दे देता है। ये सामन्त ज़मीन के बदले राजा को सैनिक, टैक्स या अन्य सेवाएँ प्रदान करते हैं। इन सामन्तों के अधीन छोटे ज़मींदार या जागीरदार होते हैं, और सबसे नीचे किसान या श्रमिक वर्ग होता है, जो इन सामन्तों की ज़मीन पर काम करता है।
इस व्यवस्था में किसान ज़मीन के मालिक नहीं होते, बल्कि वे सामन्तों के अधीन होकर खेतों में काम करते हैं। बदले में उन्हें ज़रूरत भर की उपज मिलती है, जबकि अधिकतर हिस्सा सामन्त ले लेते हैं। किसान सामाजिक और आर्थिक रूप से बहुत निर्बल होते हैं, और उनके पास न तो स्वतंत्रता होती है, न ही किसी प्रकार की सुरक्षा। सामन्त उनके ऊपर कर लगाते हैं, और कई बार जबरन श्रम करवाते हैं जिसे ‘बेगार’ कहा जाता है।
भारत में सामन्तवाद की झलक प्राचीन काल से ही मिलती है, लेकिन यह व्यवस्था विशेष रूप से गुप्तकाल के बाद से मजबूत होने लगी और मध्यकालीन भारत में पूरी तरह स्थापित हो गई। ‘मौनशाही’ के रूप में जब केंद्र कमजोर होता गया, तब स्थानीय शक्तियाँ मजबूत हुईं और सामन्त वर्ग का उदय हुआ। वे स्थानीय शासकों की तरह व्यवहार करने लगे, खुद की सेनाएँ रखने लगे और कर वसूलने लगे।
यूरोप में सामन्तवाद की शुरुआत रोमन साम्राज्य के पतन के बाद हुई। वहाँ भी राजा ज़मीन बाँटकर सामन्तों को शक्तिशाली बनाता था, और बदले में उनसे सेवाएँ प्राप्त करता था। सामन्त अपने क्षेत्र में कानून से लेकर सेना तक सभी चीजों के नियंत्रक होते थे। इस व्यवस्था ने समाज में वर्गभेद को बहुत बढ़ावा दिया, जिसमें राजाओं और सामन्तों के पास अधिकार और ऐश्वर्य होता था, जबकि आम जनता गुलाम जैसी जिंदगी जीती थी।
सामन्तवाद का एक विशेष लक्षण यह भी होता है कि इसमें समाज स्थिर और गतिहीन होता है। व्यक्ति जन्म से ही अपने वर्ग में बंधा होता है – किसान का बेटा किसान ही बनता है, सामन्त का बेटा सामन्त। इस कारण व्यक्तिगत उन्नति या सामाजिक परिवर्तन की संभावना बहुत कम होती है। यह व्यवस्था परंपराओं, रीति-रिवाज़ों और धार्मिक मान्यताओं पर आधारित होती है, जो ऊँच-नीच को स्थायी बनाती है।
सामन्तवाद में प्रशासनिक और सैन्य जिम्मेदारियाँ भी सामन्तों के पास होती हैं। वे अपने क्षेत्र में न्याय भी करते हैं, जिससे उनके पास बहुत अधिक शक्ति और प्रभाव होता है। राजा पर सामन्तों की निर्भरता इतनी होती है कि कई बार सामन्त राजा को भी चुनौती दे देते हैं या खुद को स्वतंत्र शासक घोषित कर लेते हैं। इसी कारण कई साम्राज्य सामन्ती विद्रोहों के कारण कमजोर होकर बिखर गए।
इस व्यवस्था का अंत धीरे-धीरे आधुनिक युग में हुआ, जब व्यापार, नगरीकरण, नई राजनीतिक विचारधाराओं और औद्योगिक क्रांति ने समाज में परिवर्तन लाया। लोगों ने समानता, स्वतंत्रता और अधिकारों की माँग की, जिससे सामन्तवाद जैसी असमान व्यवस्था को चुनौती मिली।
इस प्रकार, सामन्तवाद केवल एक आर्थिक या राजनीतिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक पूर्ण सामाजिक संरचना है, जिसमें अधिकार, दायित्व, उत्पीड़न और शक्ति का एक जटिल जाल होता है।