प्रस्तावना:
साहित्य और संस्कृति के संबंध को समझना हो तो यह स्वीकार करना होगा कि साहित्य केवल कला या भाषा का रूप नहीं होता, बल्कि वह किसी समाज की संस्कृति, परंपरा, मान्यताओं, मूल्यों और जीवन दृष्टि का मूर्त रूप होता है। साहित्य का संस्कृतिमूलक अध्ययन, यानी उसका संस्कृति की दृष्टि से किया गया विश्लेषण, यह स्पष्ट करता है कि किसी रचना के पीछे कौन-सी सांस्कृतिक चेतना काम कर रही है।
इस अध्ययन में जब हम ‘प्राच्यवादी दृष्टि’ (Orientalist Perspective) की बात करते हैं, तो हमारा ध्यान विशेष रूप से उस नजरिए पर जाता है जो पूर्वी समाजों — विशेषकर भारत, चीन, अरब आदि — की संस्कृति, ज्ञान परंपरा, साहित्य और धार्मिक मूल्यों को समझने और परिभाषित करने की एक विशेष यूरोपीय (मुख्यतः औपनिवेशिक) पद्धति रही है।
अब हम साहित्य के संस्कृतिमूलक अध्ययन में प्राच्यवादी दृष्टिकोण की भूमिका, प्रभाव, सीमाएँ, और उसके विविध पहलुओं पर विस्तार से विचार करेंगे।
1. प्राच्यवाद की संकल्पना क्या है?
प्राच्यवाद (Orientalism) शब्द का प्रयोग सबसे प्रभावशाली रूप से एडवर्ड सईद (Edward Said) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Orientalism (1978) में किया। उन्होंने इसे केवल एक अकादमिक विधा न मानकर, एक विचारधारा या राजनीतिक उपकरण के रूप में देखा, जिसके माध्यम से पश्चिमी देशों ने पूर्वी समाजों को “अलग”, “पिछड़ा”, “रहस्यमय” और “कमतर” के रूप में प्रस्तुत किया।
प्राच्यवादी दृष्टिकोण यह मानकर चलता है कि पूर्व (Orient) की संस्कृतियाँ एक निश्चित प्रकार की हैं — स्थिर, परंपरागत, भावुक, धार्मिक, और पाश्चात्य आधुनिकता से भिन्न। इस सोच के आधार पर यूरोपीय विद्वानों, उपनिवेशवादियों और अनुवादकों ने भारतीय साहित्य और संस्कृति की व्याख्या की।
इस तरह प्राच्यवाद साहित्यिक अध्ययन का केवल एक पद्धतिगत ढांचा नहीं है, बल्कि यह एक वैचारिक संरचना है जो सत्ता, ज्ञान और संस्कृति के अंतर्संबंधों को भी प्रकट करती है।
2. साहित्य का संस्कृतिमूलक अध्ययन क्या होता है?
जब हम किसी साहित्यिक कृति का अध्ययन उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए करते हैं — जैसे सामाजिक परंपराएँ, धार्मिक विश्वास, रीति-रिवाज़, भाषिक व्यवहार, जातीयता, लिंग भेद, धार्मिक आस्था, मिथक, लोककथाएँ, आदि — तो इसे संस्कृतिमूलक अध्ययन कहा जाता है।
इस प्रकार का अध्ययन हमें यह समझने में मदद करता है कि कोई कृति सिर्फ ‘कहानी’ नहीं, बल्कि एक युग विशेष की सांस्कृतिक संरचना का चित्रण है। उदाहरणस्वरूप, रामायण या महाभारत को यदि केवल पौराणिक ग्रंथ मानकर न देखा जाए, बल्कि संस्कृति के वाहक ग्रंथ मानकर पढ़ा जाए, तो हमें भारतीय समाज के मूल्य, आस्थाएँ और संघर्ष अधिक गहराई से समझ में आते हैं।
3. प्राच्यवादी दृष्टिकोण से संस्कृतिमूलक अध्ययन की शुरुआत
ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान अनेक यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय साहित्य, दर्शन और संस्कृति का अध्ययन किया। सर विलियम जोन्स, मैक्समूलर, एच.टी. कोलब्रुक, विंसेंट स्मिथ जैसे नाम सामने आते हैं, जिन्होंने वेद, उपनिषद, महाकाव्य, रामायण, भगवद्गीता और अनेक शास्त्रीय ग्रंथों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया और व्याख्या प्रस्तुत की।
इन विद्वानों ने भारतीय संस्कृति को एक “महान अतीत” के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन साथ ही यह दृष्टि उसमें व्याप्त सामाजिक गतिशीलता, विरोधाभासों और यथार्थ को समझने में विफल रही। उन्होंने भारतीय साहित्य को एक ‘रहस्यमय’, ‘धार्मिक’ और ‘प्राचीन’ वस्तु के रूप में चित्रित किया, जिससे यह धारणा बनी कि भारतीय समाज आधुनिकता से अछूता और अपरिवर्तनीय है।
इसका प्रभाव यह हुआ कि साहित्य के संस्कृतिमूलक अध्ययन में भी पश्चिमी मूल्य-बोध के अनुसार पूर्व को परखा जाने लगा, और वास्तविक सांस्कृतिक संदर्भों की उपेक्षा हुई।
4. प्राच्यवादी दृष्टिकोण की विशेषताएँ
प्राच्यवादी दृष्टि से जब साहित्य का संस्कृतिमूलक अध्ययन किया जाता है, तो उसमें निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं:
i. रहस्यात्मकता और आध्यात्मिकता का अतिरेक
भारतीय साहित्य को रहस्य, अध्यात्म, योग, कर्म, पुनर्जन्म आदि के प्रतीकों से ही जोड़कर देखा गया। जैसे भगवद्गीता को केवल “धार्मिक ग्रंथ” मानकर उसकी सामाजिक, राजनीतिक, और नैतिक व्याख्याओं को उपेक्षित कर दिया गया।
ii. ‘गौरवशाली अतीत’ की रूमानी कल्पना
प्राच्यवादी दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति को एक “स्वर्ण युग” के रूप में प्रस्तुत करता है, परंतु यह गौरवशाली अतीतवृत्ति वर्तमान सामाजिक समस्याओं — जैसे जातिवाद, स्त्री-दमन, गरीबी — से मुँह मोड़ लेती है। यह दृष्टि साहित्य को सामाजिक संघर्षों का दर्पण मानने के बजाय एक आदर्शीकृत छवि बनाकर प्रस्तुत करती है।
iii. स्थिरता का दृष्टिकोण
प्राच्यवादी विचारधारा मानती है कि पूर्वी संस्कृति समय के साथ बहुत कम बदली है। इसलिए उनका साहित्य भी परिवर्तनशील नहीं, बल्कि स्थायी मूल्यों और परंपराओं का प्रतीक माना गया। इससे साहित्य की सामाजिक प्रगतिशीलता और विचारधारात्मक पक्षों की उपेक्षा हुई।
iv. पाश्चात्य आधुनिकता की श्रेष्ठता
प्राच्यवाद में यह मान्यता निहित रहती है कि पाश्चात्य आधुनिकता, तर्कशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अधिक ‘उन्नत’ हैं, जबकि पूर्वी साहित्य और संस्कृति भावनात्मक, रहस्यवादी और अव्यावहारिक है। इससे साहित्य के मूल सांस्कृतिक संदर्भों की गहराई में जाने की प्रवृत्ति बाधित होती है।
5. प्राच्यवादी दृष्टिकोण के साहित्यिक अध्ययन पर प्रभाव
i. अनुवादों के माध्यम से बनी सांस्कृतिक धारणाएँ
भारतीय ग्रंथों के अंग्रेज़ी में हुए अनुवादों ने पश्चिम और भारत दोनों में एक प्रकार की ‘एकांगी समझ’ पैदा की। उदाहरण के लिए, जब ‘मनुस्मृति’ का अंग्रेज़ी अनुवाद हुआ, तो भारतीय समाज को अत्यधिक जातिपरक और अनाड़ी बताया गया, लेकिन उसमें सुधार और आंदोलन की संभावनाओं की उपेक्षा हुई।
ii. आधुनिक भारतीय विद्वानों पर प्रभाव
प्राच्यवादी दृष्टिकोण का प्रभाव भारतीय विद्वानों पर भी पड़ा। वे अपने साहित्य को पश्चिमी कसौटियों पर कसने लगे। इससे मौलिक सांस्कृतिक विश्लेषण की परंपरा बाधित हुई और आत्मसंदेह की भावना पनपी।
iii. पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण में प्रतिबिंब
भारत की शिक्षा व्यवस्था में भी लंबे समय तक साहित्य को “सांस्कृतिक गौरव” के रूप में पढ़ाया जाता रहा, परंतु आलोचनात्मक दृष्टि से नहीं। साहित्य की सामाजिक उपयोगिता, संघर्षशीलता, और विरोध की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया गया।
6. उत्तर-प्राच्यवादी (Post-Orientalist) प्रतिक्रिया और पुनर्पाठ
एडवर्ड सईद और उनके उत्तरवर्ती विचारकों ने प्राच्यवादी दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए यह दिखाया कि पूर्व को जैसा चित्रित किया गया है, वह सत्ता की दृष्टि से नियंत्रित छवि है। इसके बाद अनेक विद्वानों ने साहित्य के संस्कृतिमूलक अध्ययन में ‘देशज दृष्टियों’ (Indigenous Perspectives) को प्राथमिकता दी।
इसने भारतीय साहित्य को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से समझने, परंपराओं की जटिलता को पहचानने और आधुनिक आलोचना दृष्टियों को स्थानीय अनुभवों से जोड़ने की दिशा में मार्ग प्रशस्त किया।
अब साहित्यिक रचनाओं — जैसे कबीर की वाणी, तुलसी का रामचरितमानस, भीमबॉय की आत्मकथा, मंटो की कहानियाँ — को केवल सांस्कृतिक प्रतीक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक दस्तावेज़ के रूप में भी देखा जाने लगा।
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