सिख धर्म के अनुसार जाति स्वतंत्र समाज की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।

सिख धर्म की स्थापना 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुरु नानक देव जी ने की थी। यह धर्म उस समय भारतीय समाज में व्याप्त गहरी सामाजिक, धार्मिक और जातिगत असमानताओं के विरुद्ध एक मजबूत आवाज बनकर उभरा। गुरु नानक देव जी और उनके बाद के नौ गुरुओं ने सिख धर्म को एक ऐसे मार्ग के रूप में प्रस्तुत किया जो सभी मनुष्यों को समान मानता है, चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग, लिंग या क्षेत्र से संबंध रखते हों। सिख धर्म की सबसे मौलिक और क्रांतिकारी विशेषताओं में से एक है — जाति-स्वतंत्र समाज की अवधारणा।

गुरु नानक देव जी ने स्पष्ट कहा था:
“ना कोई हिंदू, ना मुसलमान”,
जिसका उद्देश्य यह दिखाना था कि मनुष्य की पहचान उसके कर्मों से होनी चाहिए, न कि उसके जन्म या धर्म से। जाति प्रथा, जो कि उस समय समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी थी, गुरु नानक और उनके उत्तराधिकारियों द्वारा पूरी तरह खारिज की गई। उन्होंने सिख धर्म को समानता, सेवा, और भाईचारे के सिद्धांतों पर आधारित बनाया।

सिख धर्म में “एक ओंकार” की भावना — अर्थात एक ही ईश्वर है जो सभी का है — जातिवाद की अवधारणा को जड़ से हिला देता है। यदि ईश्वर एक है और सभी उसका ही अंश हैं, तो यह तर्कहीन है कि कोई जाति किसी अन्य जाति से श्रेष्ठ मानी जाए।

सिख धर्म की विचारधारा केवल उपदेशों तक सीमित नहीं रही, इसे व्यवहार में भी उतारा गया। उदाहरण के लिए, “लंगर” की परंपरा — जहाँ सभी लोग एक साथ बैठकर बिना जाति या वर्गभेद के भोजन करते हैं — जाति व्यवस्था के खिलाफ एक व्यावहारिक और क्रांतिकारी कदम था। यह परंपरा आज भी दुनिया भर के गुरुद्वारों में निभाई जाती है, और यह दर्शाती है कि भोजन और सेवा के स्तर पर भी सभी मनुष्य समान हैं।

इसी तरह, “नाम सिमरण”, “कीरत करो”, और “वंड छको” जैसे सिद्धांत भी सामाजिक समता को बढ़ावा देते हैं। “नाम सिमरण” यानी ईश्वर का स्मरण सभी के लिए खुला है; “कीरत करो” यानी ईमानदारी से मेहनत करके जीवन यापन करना जाति की परंपरागत भूमिकाओं को अस्वीकार करता है; और “वंड छको” यानी अपनी कमाई का कुछ हिस्सा दूसरों के साथ बाँटना, यह भी सामाजिक बराबरी को दर्शाता है।

गुरु गोबिंद सिंह जी ने जातिवाद के खिलाफ सबसे बड़ा कदम 1699 में उठाया, जब उन्होंने “खालसा पंथ” की स्थापना की। खालसा में दीक्षा लेने वाले पाँच प्यारे — जिन्होंने पहला अमृत पिया — वे पाँचों अलग-अलग जातियों से थे। इससे यह संदेश दिया गया कि धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सभी बराबर हैं। खालसा का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह था कि सभी सिखों को “सिंह” (पुरुष) और “कौर” (महिला) उपनाम दिए गए, जिससे उनके पारंपरिक जातीय उपनाम हट जाएँ और समाज में जाति की पहचान मिटे।

इतना ही नहीं, गुरु ग्रंथ साहिब — जो सिख धर्म का प्रमुख धर्मग्रंथ है — उसमें संत रविदास, नामदेव, कबीर जैसे अनेक भक्ति संतों की वाणी सम्मिलित है, जो तथाकथित नीची जातियों से आते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि सिख धर्म जाति के आधार पर किसी को भी न ऊँचा मानता है, न नीचा।

आधुनिक सिख समाज में भी यह प्रयास किया जाता है कि जातिवादी सोच को दूर रखा जाए। हालांकि व्यावहारिक जीवन में कुछ जातिगत प्रभाव शेष हो सकते हैं, लेकिन धार्मिक सिद्धांतों में कोई संदेह नहीं कि सिख धर्म जाति-स्वतंत्र समाज का समर्थक है। यह धर्म एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जहाँ हर व्यक्ति को आत्मिक और सामाजिक रूप से बराबरी का दर्जा मिले।

इस प्रकार, सिख धर्म न केवल जातिवाद के विरुद्ध आवाज उठाता है, बल्कि एक ऐसे व्यावहारिक ढाँचे की भी पेशकश करता है, जो जाति-मुक्त, समान और सेवा-प्रधान समाज की ओर ले जाता है।

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