देवी गंगा और उनके आठवें पुत्र की कथा: महाभारत के परिप्रेक्ष्य में
भारतीय शास्त्र और पुराण कथाओं में देवी गंगा का विशेष स्थान है। उन्हें पवित्रता, शुद्धता और मोक्ष की देवी माना जाता है। उनकी कथा महाभारत के महानायक भीष्म से गहराई से जुड़ी है। देवी गंगा के आठवें पुत्र के रूप में भीष्म का जन्म एक दिव्य घटना थी, जो न केवल महाभारत की कहानी को दिशा देता है, बल्कि धर्म, त्याग और कर्तव्य के आदर्शों को भी परिभाषित करता है।
गंगा का पृथ्वी पर अवतरण
देवी गंगा का उल्लेख सबसे पहले पौराणिक ग्रंथों में एक दिव्य नदी के रूप में होता है, जो स्वर्ग से पृथ्वी पर आईं। उनके पृथ्वी पर अवतरण की कथा राजा भगीरथ से जुड़ी है। भगीरथ ने अपने पूर्वजों को मोक्ष दिलाने के लिए देवी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तप किया था। गंगा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और शिवजी की जटाओं में समाहित होकर पृथ्वी पर अवतरित हुईं। उनकी पवित्रता और शुद्धता आज भी भारतीय संस्कृति में गहराई से समाई हुई है।
गंगा और राजा शांतनु का मिलन
महाभारत की कथा में गंगा का संबंध राजा शांतनु से है। शांतनु हस्तिनापुर के एक पराक्रमी राजा थे। एक दिन जब शांतनु गंगा नदी के तट पर गए, तो उन्होंने एक दिव्य सुंदरी को देखा, जो वास्तव में देवी गंगा थीं। उनके रूप, सौंदर्य और शील से प्रभावित होकर शांतनु ने उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। गंगा ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, लेकिन एक शर्त रखी। उन्होंने कहा कि वह जो भी करेंगी, राजा उन्हें रोकने या कोई प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं रखेंगे। शांतनु ने इस शर्त को मान लिया, और दोनों का विवाह हो गया।
गंगा के सात पुत्रों का मोक्ष
विवाह के बाद गंगा ने सात पुत्रों को जन्म दिया। लेकिन उन्होंने हर पुत्र को जन्म लेते ही गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। यह देखकर शांतनु का हृदय व्याकुल हो गया, लेकिन उन्होंने अपनी शर्त के कारण चुप्पी साधे रखी। दरअसल, ये सात पुत्र वसु नामक देवता थे, जिन्हें एक श्राप के कारण मानव रूप में जन्म लेना पड़ा। गंगा ने उन्हें जन्म के तुरंत बाद ही मोक्ष प्रदान कर दिया, ताकि वे अपने श्राप से मुक्त हो सकें।
आठवें पुत्र का जन्म
आठवें पुत्र के जन्म के समय राजा शांतनु से रहा नहीं गया। उन्होंने गंगा को रोकते हुए पूछा कि वह अपने पुत्रों को नदी में क्यों बहा रही हैं। गंगा ने राजा को उनकी शर्त याद दिलाई, लेकिन इस बार शांतनु अपने पुत्र को बचाने के लिए अडिग रहे। तब गंगा ने राजा को अपने वास्तविक स्वरूप और अपने कार्य का उद्देश्य बताया। आठवें पुत्र का नाम देवव्रत रखा गया, जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए। गंगा ने देवव्रत को पालने का दायित्व स्वयं संभाला और उन्हें शिक्षा, शस्त्र विद्या और ज्ञान की शिक्षा दी।
देवव्रत से भीष्म बनने की कथा
देवव्रत को गंगा ने परशुराम और बृहस्पति जैसे महान गुरुओं से शिक्षा दिलाई। वे एक पराक्रमी योद्धा और धर्मनिष्ठ व्यक्ति बने। एक दिन जब शांतनु को सत्यवती नामक महिला से प्रेम हुआ, तो उन्होंने उससे विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन सत्यवती के पिता ने यह शर्त रखी कि उनकी संतानों को ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनाया जाएगा। शांतनु इस शर्त को स्वीकार नहीं कर सके, क्योंकि देवव्रत उनके सबसे बड़े पुत्र और उत्तराधिकारी थे।
जब देवव्रत को यह बात पता चली, तो उन्होंने अपने पिता के लिए अपना उत्तराधिकार त्याग दिया और आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया। इस महान त्याग के कारण देवताओं ने उन्हें भीष्म की उपाधि दी। उनके इस व्रत ने न केवल हस्तिनापुर की राजगद्दी को स्थिर किया, बल्कि उन्हें इतिहास का एक आदर्श पात्र बना दिया।
भीष्म का महत्व
महाभारत में भीष्म का चरित्र त्याग, कर्तव्य और निष्ठा का प्रतीक है। उनके जीवन का हर पहलू यह सिखाता है कि व्यक्ति को अपने धर्म और कर्तव्य के प्रति अडिग रहना चाहिए। भीष्म ने अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन वे अपने वचनों और सिद्धांतों से कभी नहीं डिगे।
निष्कर्ष
देवी गंगा के आठवें पुत्र के रूप में भीष्म का जन्म और उनकी महानता भारतीय संस्कृति और साहित्य का एक अनमोल हिस्सा है। यह कथा न केवल पौराणिक महत्व रखती है, बल्कि जीवन में कर्तव्य, त्याग और निष्ठा के आदर्शों को भी स्थापित करती है। भीष्म का चरित्र हमें यह सिखाता है कि सच्चा त्याग और धर्म का पालन ही जीवन को सार्थक बनाता है। देवी गंगा और भीष्म की यह कथा अनंत काल तक प्रेरणा देती रहेगी।