भारतीय काव्यशास्त्र और नाट्य परंपरा में आचार्य भारतमुनि का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण और आदरणीय है। उन्हें नाट्यशास्त्र का रचयिता माना जाता है, जो भारतीय रंगमंच, नाट्यकला, अभिनय, संगीत, नृत्य और सौंदर्यशास्त्र का सबसे प्राचीन और प्रमाणिक ग्रंथ है। भारतमुनि ने जिस विद्वत्ता और विस्तार से कला के विविध अंगों का विवेचन किया है, वह न केवल प्राचीन भारत के सांस्कृतिक वैभव को दर्शाता है, बल्कि आज भी उसकी प्रासंगिकता अक्षुण्ण बनी हुई है।
इस उत्तर में हम भारतमुनि के व्यक्तित्व और कृतित्व, दोनों पक्षों का विस्तार से अध्ययन करेंगे।
1. भारतमुनि का व्यक्तित्व:
आचार्य भारतमुनि न केवल एक महान आचार्य थे, बल्कि वे एक ऐसे कलाकार भी थे जिन्होंने कला के हर पक्ष को गहराई से समझा, जिया और फिर उसे ग्रंथ के रूप में रूपांतरित किया। उनका व्यक्तित्व अत्यंत बहुमुखी, अनुसंधानप्रिय, चिंतनशील और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध था।
(i) बहुपरिमित ज्ञान और अनुभव:
भारतमुनि के व्यक्तित्व में विद्वत्ता और व्यावहारिकता का अद्भुत समन्वय था। उन्होंने नृत्य, संगीत, नाट्य, अभिनय, रंगमंच, वेशभूषा, मंच सज्जा, भाव, रस और अलंकार जैसे सभी पहलुओं को इतनी गहराई से समझा था कि नाट्यशास्त्र को एक संपूर्ण ज्ञानकोश की तरह देखा जाता है।
(ii) धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना:
भारतमुनि केवल शास्त्रीय आचार्य नहीं थे, वे एक आध्यात्मिक साधक भी थे। नाट्यशास्त्र के प्रारंभ में वे यह स्पष्ट करते हैं कि यह शास्त्र ब्रह्मा द्वारा रचा गया है और उन्होंने स्वयं उसे ग्रहण करके मानव समाज को दिया। इससे उनके भीतर की धार्मिक चेतना और ईश्वर के प्रति श्रद्धा का बोध होता है।
(iii) समाज के प्रति संवेदनशील दृष्टि:
भारतमुनि ने नाटक को केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं माना, बल्कि उन्होंने इसे समाज के चार पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – को दर्शाने वाला माना। यह उनकी सामाजिक संवेदना को दर्शाता है। वे मानते थे कि नाट्य समाज को शिक्षित करने, मनोरंजन करने और शांति प्रदान करने का प्रभावशाली माध्यम है।
(iv) तटस्थ और समन्वयकारी दृष्टिकोण:
भारतमुनि का दृष्टिकोण समावेशी था। उन्होंने कला को किसी एक वर्ग या जाति तक सीमित नहीं किया, बल्कि सभी वर्गों, वर्णों और स्त्री-पुरुषों के लिए इसे सुलभ और उपयोगी माना। उनका यह दृष्टिकोण उन्हें एक सामाजिक कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
2. भारतमुनि का कृतित्व – नाट्यशास्त्र:
भारतमुनि का सबसे प्रमुख कृतित्व नाट्यशास्त्र ग्रंथ है, जो कि संस्कृत में लिखा गया एक अत्यंत व्यापक और गूढ़ ग्रंथ है। इसमें कुल 36 अध्याय और लगभग 6000 श्लोक हैं। इस ग्रंथ को पंचम वेद भी कहा गया है।
(i) नाट्य की उत्पत्ति और उद्देश्य:
नाट्यशास्त्र के प्रारंभिक अध्यायों में भारतमुनि ने बताया है कि किस प्रकार देवताओं ने ब्रह्मा से एक ऐसे वेद की रचना करने का आग्रह किया जो सभी वर्गों के लिए उपयुक्त हो। तब ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य, यजुर्वेद से अभिनय, सामवेद से संगीत और अथर्ववेद से रस लेकर नाट्यवेद की रचना की और उसे भारतमुनि को प्रदान किया। यह इस बात का प्रतीक है कि नाट्यशास्त्र चारों वेदों का सार है।
(ii) रस सिद्धांत:
भारतमुनि के नाट्यशास्त्र की सबसे महत्वपूर्ण देन रस सिद्धांत है। उन्होंने बताया कि जब विभिन्न भाव दर्शकों तक पहुँचते हैं और उनके हृदय में विशेष प्रकार की संवेदना उत्पन्न करते हैं, तब रस की अनुभूति होती है। उन्होंने आठ रसों की चर्चा की – श्रृंगार, वीर, करुण, अद्भुत, रौद्र, भयानक, वीभत्स और हास्य। (बाद में शांत रस को नवम रस के रूप में जोड़ा गया।)
रस सिद्धांत के माध्यम से भारतमुनि ने स्पष्ट किया कि नाटक केवल घटनाओं का चित्रण नहीं है, बल्कि वह दर्शकों की भावनाओं को उद्वेलित करने और उन्हें एक प्रकार की आध्यात्मिक तृप्ति देने का माध्यम है।
(iii) अभिनय और भाव:
भारतमुनि ने नाट्य को केवल संवाद नहीं माना, बल्कि उन्होंने अभिनय को उसका केंद्र माना। उन्होंने चार प्रकार के अभिनय बताए –
- आंगिक (शारीरिक हाव-भाव),
- वाचिक (संवाद व ध्वनि),
- सात्त्विक (आंतरिक भावों की अभिव्यक्ति),
- आहार्य (वेश-भूषा और मंच सज्जा)।
इन चारों के सामंजस्य से ही एक सफल अभिनय संभव होता है। भारतमुनि ने शरीर के विभिन्न अंगों, हस्तमुद्राओं और उनके प्रयोग की विस्तार से व्याख्या की है।
(iv) संगीत और नृत्य:
नाट्यशास्त्र में संगीत और नृत्य का विशेष स्थान है। भारतमुनि ने स्वर, ताल, लय, राग, वाद्य यंत्र, नर्तक की मुद्रा आदि का वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया है। यह दर्शाता है कि वे न केवल सिद्धांतकार थे, बल्कि स्वयं एक कुशल संगीतज्ञ और नर्तक भी रहे होंगे।
(v) रंगमंच और मंच सज्जा:
भारतमुनि ने नाट्यशाला (थिएटर) की रचना, मंच निर्माण, दर्शक दीर्घा, प्रकाश व्यवस्था आदि के बारे में भी विस्तार से बताया है। उन्होंने यह भी बताया कि दर्शक कहाँ बैठें, कलाकारों का प्रवेश और निकास कैसे हो – यह सब कुछ बहुत ही व्यवस्थित ढंग से समझाया गया है।
3. भारतमुनि की वर्तमान प्रासंगिकता:
हालाँकि नाट्यशास्त्र की रचना हजारों वर्ष पहले हुई थी, फिर भी आज उसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। आज का सिनेमा, रंगमंच, टेलीविज़न, वेब सीरीज़, अभिनय और संगीत – सब कहीं न कहीं भारतमुनि की विचारधारा से जुड़े हुए हैं।
- फिल्मों के अभिनय में भाव और रस सिद्धांत आज भी उपयोगी हैं।
- थिएटर में आज भी भारतमुनि की नाट्यशाला की अवधारणाएँ अपनाई जाती हैं।
- भारतीय शास्त्रीय नृत्य – भरतनाट्यम, कथकली, ओडिसी आदि – की जड़ें भी नाट्यशास्त्र में हैं।
निष्कर्ष:
आचार्य भारतमुनि भारतीय कला-संस्कृति के ऐसे शिखर व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने केवल एक ग्रंथ नहीं लिखा, बल्कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र की नींव रखी। उनके नाट्यशास्त्र ने विश्व के रंगमंच को दिशा दी। उनका दृष्टिकोण समन्वयकारी, कल्याणकारी और गहराई से समाज-सापेक्ष था।
भारतमुनि का कृतित्व हमें यह सिखाता है कि कला केवल मनोरंजन नहीं है, वह समाज को दिशा देने, उसका मनोविज्ञान समझने और मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। उनके विचार, सिद्धांत और दृष्टिकोण आज भी कला-जगत को प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं।
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