हिन्दी साहित्य में महाकाव्य ‘साकेत’ को मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित एक अनुपम काव्य कहा जाता है, जिसमें रामकथा को एक भिन्न दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। यह महाकाव्य रामायण की कथा को उर्मिला के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास है। ‘साकेत’ का नवम् सर्ग विशेष रूप से उर्मिला के विरह का सूक्ष्म, भावनात्मक एवं करुणामयी चित्रण करता है। यहाँ राम के वनगमन से केवल सीता ही नहीं, बल्कि उर्मिला भी एक लंबे वियोग की पीड़ा सहती है — परंतु उसका यह त्याग और विरह प्रायः अनदेखा रह जाता है।
उर्मिला का चरित्र:
उर्मिला केवल लक्ष्मण की पत्नी नहीं, बल्कि त्याग, सहनशीलता और नारी-समर्पण की मूर्ति है। जब लक्ष्मण राम और सीता के साथ वनवास के लिए जाते हैं, तब उर्मिला अपने पति से अलग हो जाती है। परंतु यह वियोग केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मिक भी है। उर्मिला का प्रेम, त्याग और धैर्य उसे अन्य सभी स्त्रियों से विशिष्ट बनाते हैं।
नवम् सर्ग का भावात्मक पक्ष:
साकेत के नवम् सर्ग में उर्मिला के भीतर उठते भावनात्मक द्वंद्व, आत्मसंघर्ष, पीड़ा, आशा और धैर्य का अद्भुत चित्रण मिलता है। यह भाग उर्मिला के उस अंतर्मन को उद्घाटित करता है जिसे साहित्य में सदैव उपेक्षित रखा गया था।
उर्मिला के विरह की विशेषताएँ:
1. नारी-वियोग की सूक्ष्म अभिव्यक्ति:
उर्मिला का वियोग एक नारी के अंतर्मन का, उसके अंतरात्मा का वियोग है। वह केवल अपने पति से अलग नहीं हुई, उसने स्वयं अपने जीवन के सभी सुखों से दूरी बना ली। वह राजमहल में रहकर भी उस तपस्विनी की भाँति जीवन जीती है, जो हर दिन प्रतीक्षा में अपने प्राणों को संयमित करती है।
“उर्मिला विरहिणी बनकर,
स्वयं को करती है नित वरण।”
2. आत्मसंयम की चरम सीमा:
उर्मिला का विरह उसे विचलित नहीं करता, वह रोती है, पर किसी के सामने नहीं। वह अपने हृदय में उठते भावों को शांत करती है और संयम के साथ प्रतीक्षा करती है।
“न वह विलाप करती है, न शोक,
बस मौन में है उसका वियोग।”
3. प्रेम का आध्यात्मिक रूप:
उर्मिला का प्रेम लौकिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक है। वह लक्ष्मण के प्रति एक पत्नी के रूप में प्रेम करती है, लेकिन उनका त्याग देखकर उनके निर्णय का भी सम्मान करती है। यही उर्मिला के प्रेम को उच्चतर बनाता है।
“प्रेम वह नहीं जो साथ हो,
प्रेम वह जो दूरी में भी साथ हो।”
4. विरह में भी प्रेरणा:
उर्मिला का वियोग उसे दुर्बल नहीं करता, बल्कि वह खुद को प्रेरित करती है। वह आत्मबल और मानसिक दृढ़ता का प्रतीक बन जाती है। विरह को वह दुःख नहीं, बल्कि तपस्या मानती है।
5. समाज में उपेक्षित नारी की पीड़ा:
गुप्त जी ने इस सर्ग में उर्मिला के माध्यम से उन स्त्रियों की पीड़ा को स्वर दिया है, जो परिवार और समाज के उत्तरदायित्व में अपने निजी सुखों का त्याग करती हैं, परंतु उनकी भावना को कोई नहीं समझता।
“सीता वन संग गई,
मैं वन से भी बढ़कर बन गई।”
6. उर्मिला का धैर्य और प्रतीक्षा:
साकेत का नवम् सर्ग प्रतीक्षा की महत्ता को दर्शाता है। उर्मिला का चरित्र यह सिखाता है कि प्रेम केवल मिलन नहीं, अपितु प्रतीक्षा में भी एक मधुर सौंदर्य है।
“हर प्रहर बीते प्रतीक्षा में,
हर साँझ उगे अभिलाषा में।”
7. सामाजिक और मानसिक द्वंद्व:
उर्मिला अपने मन में अनेक प्रश्नों से जूझती है — क्या लक्ष्मण ने ठीक किया? क्या मैं उनके योग्य नहीं थी? क्या यह मेरी परीक्षा है? — परंतु अंत में वह स्वयं अपने ही उत्तर बन जाती है।
8. आध्यात्मिक नारी का उद्भव:
गुप्त जी ने उर्मिला को उस नारी रूप में प्रस्तुत किया है, जो पुरुषों से कहीं अधिक धैर्यवान, दृढ़ और त्यागमयी है। वह किसी साध्वी से कम नहीं। उसका विरह तप है, उसकी पीड़ा साधना है।
“उसके आँसू नहीं कमज़ोरी थे,
वे उसकी पूजा के अभिषेक थे।”
9. संवेदनशील भाषा और चित्रात्मकता:
गुप्त जी ने नवम् सर्ग में भावनाओं को इतना कोमल और सुंदर रूप दिया है कि पाठक उर्मिला की पीड़ा को महसूस कर सकता है। उपमाएँ, रूपक, अलंकार और सांकेतिक भाषा का प्रयोग इस सर्ग को साहित्यिक दृष्टि से भी समृद्ध बनाता है।
सारांश और निष्कर्ष:
साकेत का नवम् सर्ग एक अद्वितीय उदाहरण है कि कैसे एक उपेक्षित पात्र — उर्मिला — को केंद्र में रखकर एक संपूर्ण महाकाव्य की आत्मा में स्थान दिया जा सकता है। उर्मिला का विरह केवल एक स्त्री का पति से बिछड़ना नहीं, बल्कि यह एक नारी के भीतर के धैर्य, शक्ति, त्याग और प्रेम का अमर चित्रण है।
गुप्त जी ने उर्मिला को एक नारी की सबसे पवित्र, सबसे मजबूत और सबसे शांत अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है। यह सर्ग हमें सिखाता है कि प्रेम में त्याग ही सबसे बड़ा सौंदर्य है — और उर्मिला इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।
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