नागार्जुन की काव्य भाषा पर प्रकाश डालिए।


नागार्जुन की काव्य: नागार्जुन हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा कवियों में से हैं जिन्होंने कविता को जनता की जुबान दी। वे केवल एक कवि नहीं थे, बल्कि जनभावनाओं के सच्चे प्रतिनिधि थे। उनकी कविताएँ सीधे दिल से निकलती हैं और सीधे जनमानस के हृदय में उतर जाती हैं। उनकी काव्य भाषा उनके विचारों, संवेदनाओं और उनकी जनपक्षधरता का आईना है। नागार्जुन की भाषा का सौंदर्य उसके सहजता, सजीवता और सामाजिक चेतना में है।

1. भाषा की सहजता और सादगी

नागार्जुन की काव्य भाषा अत्यंत सहज और सरल है। वे जटिलता से दूर रहते हैं। उनकी भाषा विद्वानों के लिए नहीं, आम जनता के लिए होती है। वे कठिन और संस्कृतनिष्ठ शब्दों से बचते हैं और ऐसी भाषा चुनते हैं जो गाँव, खेत, मजदूर और छात्रों की जुबान पर रहती है।

उदाहरण के लिए, उनकी प्रसिद्ध कविता “मनुष्य और बंदर” में वे कहते हैं:

“बंदर क्या जाने मनुष्य का दुख,
नंगी पीठ लिए घूमता है सुख।”

यहाँ न कोई अलंकारिक उलझाव है, न ही शास्त्रीय बनावट — बस सीधी बात, सच्ची बात।

2. लोकभाषा और बोलचाल का पुट

नागार्जुन की कविता की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी लोकभाषा में पकड़। उन्होंने मैथिली, भोजपुरी, अवधी और हिंदी की बोलियों को अपनी कविता में इस तरह पिरोया है कि भाषा जीवन्त बन जाती है। उनकी कविताओं में ग्रामीण भारत की गंध आती है। वे ठेठ देसी मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों का इस्तेमाल करते हैं जिससे भाषा में गहराई और अपनापन आता है।

जैसे कि एक पंक्ति है:

“अन्ने-पन्ने खाइब, धरती गहाइब!”

यह पंक्ति न केवल भाषा की मिठास को दर्शाती है बल्कि जनजीवन की जमीनी सच्चाई को भी उजागर करती है।

3. विरोध और विद्रोह की भाषा

नागार्जुन जनकवि थे। उन्होंने सत्ता, शोषण और अन्याय के खिलाफ अपनी कलम को हथियार बनाया। उनकी भाषा में विद्रोह की ज्वाला है। उनकी कविताएँ व्यवस्था से सवाल करती हैं, और यह सवाल वह भद्र भाषा में नहीं, बल्कि धारदार, ललकारती हुई भाषा में करते हैं।

उनकी कविता “अकाल और उसके बाद” में वे लिखते हैं:

“भूख के लिए अब लड़ना होगा,
खेत जो जोते, वही खाएगा।”

यहाँ भाषा केवल विचार नहीं है, बल्कि आंदोलन है।

4. हास्य और व्यंग्य का प्रयोग

नागार्जुन की भाषा में व्यंग्य की एक अलग ही धार है। वे सत्ता पर व्यंग्य करने से नहीं डरते। उनकी व्यंग्यात्मक भाषा में कटाक्ष होता है लेकिन उसमें गुस्से की जगह हास्य होता है जो पाठक को सोचने पर मजबूर करता है।

उदाहरणस्वरूप, इंदिरा गांधी पर लिखी गई उनकी प्रसिद्ध कविता “इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको?” में वे लिखते हैं:

“गद्दी पर जमी इंदु जी,
जनता को क्यों डसा आपको?”

यहाँ व्यंग्य के साथ-साथ सत्ता की आलोचना भी दिखाई देती है।

5. प्रकृति के चित्रण में सरल और जीवंत भाषा

नागार्जुन की कविताओं में प्रकृति का भी अद्भुत चित्रण है। लेकिन उनका प्रकृति-चित्रण केवल सौंदर्य देखने के लिए नहीं है, वह समाज और जीवन से जुड़ा होता है। उनकी भाषा वहाँ भी जीवंत और सरल बनी रहती है।

उनकी कविता “बादल को घिरते देखा है” की भाषा देखें:

“बादल को घिरते देखा है,
सावन के अंधेरे कोने में,
उड़ते हुए रेघन को देखा है।”

इन पंक्तियों में चित्रात्मकता भी है और सौंदर्य भी, लेकिन यह सब कुछ बोझिल नहीं लगता, बल्कि बहुत ही स्वाभाविक ढंग से सामने आता है।

6. संवेदना की भाषा

नागार्जुन की भाषा संवेदना से भरी होती है। वे किसानों, मजदूरों, दलितों, वंचितों, स्त्रियों और बच्चों की पीड़ा को बहुत संवेदनशील तरीके से शब्दों में ढालते हैं। उनकी कविताओं में करुणा झलकती है, लेकिन करुणा के साथ-साथ संघर्ष की प्रेरणा भी होती है।

उनकी कविता “भूखा हूँ” में वे लिखते हैं:

“भूखा हूँ मैं,
मत दो मुझे उपदेश,
मत पढ़ाओ धर्मग्रंथ,
दो मुझे रोटी।”

इसमें भाषा किसी भारी भरकम दर्शन की नहीं, बल्कि भूख की है — और यही भाषा को महान बनाती है।

7. बहुस्तरीय भाषा

नागार्जुन की काव्य भाषा एक सतह पर नहीं चलती। वह बहुस्तरीय होती है। वह एक साथ ग्रामीण और शहरी, बोलचाल और साहित्यिक, सीधी और प्रतीकात्मक — सभी रूपों में सामने आती है। यह विविधता ही उनकी भाषा को विशेष बनाती है। वे जैसे पाठकों से संवाद करते हैं — कभी मित्रवत, कभी सवाल पूछते हुए, तो कभी आदेशात्मक शैली में।

8. अनूठी शिल्प योजना

नागार्जुन की भाषा की विशेषता यह भी है कि वे पारंपरिक छंदों से बंधे नहीं रहते। वे नई भाषा, नया शिल्प और नई संरचना अपनाते हैं। कभी वे लंबी कविता में भाव रखते हैं तो कभी दो पंक्तियों में पूरी दुनिया कह देते हैं।

उनकी कविता “उग्रठ मुस्कान” में उनकी भाषा, शिल्प और तेवर — तीनों अनूठे हैं।(नागार्जुन की काव्य)

नागार्जुन की काव्य


निष्कर्ष:

नागार्जुन की काव्य भाषा केवल साहित्यिक प्रयोग नहीं है, वह एक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक हथियार है। वह जनभावनाओं की भाषा है, विद्रोह की भाषा है, परिवर्तन की भाषा है। उनकी भाषा में एक तरफ लोक का ठेठपन है तो दूसरी तरफ शहरी बौद्धिकता की चपलता भी है। वह कभी पुकार बन जाती है, कभी ललकार और कभी दुलार। यही विविधता, यही सहजता और यही सच्चाई नागार्जुन की भाषा को कालजयी बनाती है। (नागार्जुन की काव्य)

नागार्जुन ने यह साबित कर दिया कि महान कविता वही होती है जो लोगों की ज़ुबान से निकले और उनके दिलों में घर करे। उन्होंने भाषा को जनता के पक्ष में खड़ा कर दिया — और यही उनकी सबसे बड़ी साहित्यिक क्रांति है। (नागार्जुन की काव्य)

नागार्जुन की काव्य


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