प्रगतिवादी मूल्य पर टिप्पणी करें।


प्रगतिवादी मूल्य

परिचय:

प्रगतिवादी मूल्य साहित्य और समाज की वह चेतना हैं, जो अन्याय, शोषण, असमानता और रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाते हैं। हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद एक ऐसी विचारधारा रही है जिसने साहित्य को केवल सौंदर्य और भावना का साधन न मानकर, उसे समाज परिवर्तन का औज़ार माना। यह आंदोलन 1936 में शुरू हुआ और इसके पीछे मुख्य प्रेरणा थी — सामाजिक यथार्थ का चित्रण और आम जनता के पक्ष में खड़ा होना


प्रगतिवाद की मूल भावना:

प्रगतिवाद का मुख्य उद्देश्य समाज को बेहतर बनाना है। इसके मूल्य उन विचारों में निहित हैं जो जीवन को आगे बढ़ाने वाले, सकारात्मक बदलाव लाने वाले, और जनसाधारण के पक्ष में खड़े होने वाले हैं।
इस विचारधारा में कुछ प्रमुख मूल्य सामने आते हैं:

  1. सामाजिक न्याय – हर व्यक्ति को समान अवसर मिले, जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव न हो।
  2. स्वतंत्रता और समानता – विचार, जीवन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ हर नागरिक को बराबरी का अधिकार।
  3. श्रम का सम्मान – मजदूर, किसान, श्रमिक वर्ग को समाज में सम्मान मिले और उनका शोषण न हो।
  4. रूढ़ियों का विरोध – अंधविश्वास, पुरानी परंपराएँ, जातिवाद आदि के खिलाफ प्रतिरोध।
  5. जन सरोकारों से जुड़ाव – साहित्य, कला और संस्कृति आम आदमी की आवाज बनें।

प्रगतिवादी साहित्य में इन मूल्यों की अभिव्यक्ति:

प्रगतिवादी कवि और लेखक जैसे – नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, यशपाल, मुल्कराज आनंद आदि ने इन मूल्यों को अपनी रचनाओं में जीवंत किया। वे भोग-विलास या केवल प्रेम की बात नहीं करते, बल्कि उस किसान की भी बात करते हैं जिसकी फसल सूख जाती है, उस मजदूर की भी बात करते हैं जो ठेकेदार के हाथों शोषित होता है।

उदाहरण के लिए, नागार्जुन की कविता में हम पढ़ते हैं:

“युद्ध जो हो रहा है, उसका नाम नहीं
भूख से मर रही है जनता,
उसका इल्जाम नहीं…”

यहाँ समाज में हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना ही प्रगतिवादी मूल्य का सार है।


आज के संदर्भ में प्रगतिवादी मूल्य:

आज भी जब समाज में आर्थिक असमानता, बेरोजगारी, महिला उत्पीड़न, धार्मिक कट्टरता जैसे मुद्दे सामने आते हैं, तो प्रगतिवादी मूल्य और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।

साहित्य का उद्देश्य आज भी केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि चेतना जगाना होना चाहिए। इसीलिए आधुनिक साहित्यकारों को भी चाहिए कि वे प्रगतिवादी सोच को अपनाएँ और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाएँ।


निष्कर्ष:

प्रगतिवादी मूल्य किसी एक युग की नहीं, बल्कि हर उस दौर की ज़रूरत हैं जहाँ अन्याय और असमानता है। ये मूल्य हमें केवल साहित्य में नहीं, जीवन में भी एक दिशा देते हैं — कि हमें किसके साथ खड़ा होना है, किसके लिए लिखना है, और किसके हक़ की बात करनी है।

इसलिए, प्रगतिवादी मूल्य केवल विचार नहीं, बल्कि एक सामाजिक दृष्टिकोण हैं जो हर संवेदनशील इंसान और रचनाकार के लिए ज़रूरी हैं।


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