भारत जब 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ, तब उसकी अर्थव्यवस्था बेहद जर्जर स्थिति में थी। लगभग दो शताब्दियों तक ब्रिटिश शासन के दौरान भारत का आर्थिक, सामाजिक और औद्योगिक ढांचा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि-प्रधान और औपनिवेशिक शोषण का शिकार रही। इस उत्तर में हम स्वतंत्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की दो मुख्य विशेषताओं—कृषि पर निर्भरता और औद्योगिकीकरण का अभाव—का विस्तार से विश्लेषण करेंगे।
1. कृषि पर अत्यधिक निर्भरता और उसकी पिछड़ी स्थिति:
स्वतंत्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे प्रमुख विशेषता थी—उसकी अत्यधिक कृषि पर निर्भरता। लगभग 70 से 75 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न थी। हालांकि इतनी बड़ी जनसंख्या कृषि में लगी होने के बावजूद कृषि का उत्पादन और उत्पादकता दोनों ही अत्यंत निम्न स्तर पर थीं। इसके कई कारण थे:
a) परंपरागत कृषि प्रणाली: भारत में कृषि अभी भी परंपरागत उपकरणों और विधियों पर आधारित थी। किसान बैल की मदद से हल चलाते थे, सिंचाई का कोई ठोस प्रबंध नहीं था, और उन्नत बीजों तथा खादों का उपयोग नहीं होता था। इससे उत्पादन क्षमता बहुत सीमित हो गई थी।
b) भूमि व्यवस्था और जमींदारी प्रथा: ब्रिटिश शासनकाल में लागू की गई भूमि व्यवस्था (जैसे—जमींदारी प्रथा) ने किसानों को आर्थिक रूप से कमजोर कर दिया। किसान अपने ही खेतों में मजदूरी करने को मजबूर थे और उन्हें अपनी उपज का एक बड़ा हिस्सा लगान के रूप में देना पड़ता था।
c) असुरक्षित जीवन और अस्थिर आय: किसान पूरी तरह से मानसून पर निर्भर थे। एक बार बारिश असमय हो जाए या सूखा पड़ जाए, तो पूरे वर्ष की मेहनत बर्बाद हो जाती थी। न तो बीमा की कोई सुविधा थी, न ही सरकार से समर्थन मूल्य मिलता था।
d) खाद्य संकट और भुखमरी: कृषि उत्पादकता की कमी और वितरण प्रणाली की कमजोरियों के कारण देश में बार-बार खाद्यान्न संकट उत्पन्न होता था। देश के कई हिस्सों में अकाल और भुखमरी जैसी स्थितियाँ सामने आती थीं।
इस प्रकार, स्वतंत्रता के समय भारत एक कृषि-प्रधान देश था, लेकिन उसकी कृषि अर्थव्यवस्था पिछड़ी, असुरक्षित और अलाभकारी थी।
2. औद्योगिकीकरण का अभाव और औपनिवेशिक शोषण:
दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि स्वतंत्रता के समय भारत में औद्योगीकरण लगभग नगण्य था। ब्रिटिश शासन ने भारत को एक कच्चा माल सप्लाई करने वाला उपनिवेश बना दिया था, और यहां पर कोई ठोस औद्योगिक आधार विकसित नहीं होने दिया गया।
a) पारंपरिक उद्योगों का पतन: भारत में पहले हस्तशिल्प, बुनाई, कढ़ाई, धातु कार्य और लकड़ी उद्योग जैसे पारंपरिक उद्योग बहुत फल-फूल रहे थे। लेकिन ब्रिटिश नीति ने सस्ते ब्रिटिश माल के आयात को प्रोत्साहित किया और भारतीय हस्तशिल्प को दबा दिया। इससे लाखों कारीगर बेरोजगार हो गए।
b) भारी उद्योगों की कमी: स्वतंत्रता तक भारत में लोहा, इस्पात, मशीन निर्माण जैसे भारी उद्योग विकसित नहीं हो पाए थे। ब्रिटिशों का ध्यान केवल रेलवे, डाक और टेलीग्राम जैसी संरचनाओं तक सीमित था, जो उनके प्रशासन और व्यापार के लिए सहायक थीं।
c) पूंजी और तकनीकी ज्ञान की कमी: देश में न तो पर्याप्त पूंजी थी और न ही आधुनिक तकनीकी ज्ञान या प्रशिक्षित श्रमिक। निजी क्षेत्र भी अत्यधिक जोखिम लेने की स्थिति में नहीं था।
d) बेरोजगारी और कुटीर उद्योगों का अभाव: जब पारंपरिक उद्योग ध्वस्त हुए तो उनका स्थान लेने के लिए छोटे और मझोले उद्यम नहीं थे। इस वजह से बेरोजगारी व्यापक रूप से फैल गई, खासकर ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में।
e) आर्थिक असंतुलन: कुछेक क्षेत्र जैसे मुंबई, कोलकाता और मद्रास में सीमित औद्योगीकरण हुआ था, लेकिन यह भी ब्रिटिश व्यापारिक हितों से प्रेरित था। देश के अधिकांश हिस्से औद्योगिक रूप से पिछड़े रहे।
इस प्रकार, स्वतंत्रता के समय भारत एक औद्योगिक दृष्टिकोण से अत्यंत पिछड़ा हुआ देश था, और उसकी अर्थव्यवस्था ब्रिटिश शोषण की शिकार बनी रही।
ये दोनों विशेषताएँ—कृषि पर अत्यधिक निर्भरता और औद्योगिकीकरण का अभाव—भारत की उस समय की आर्थिक संरचना को गहराई से दर्शाती हैं। इन दोनों कारणों ने मिलकर भारत को एक कमज़ोर, असमान और शोषित अर्थव्यवस्था के रूप में स्वतंत्रता प्राप्त करते समय प्रस्तुत किया।