हिन्दी कहानी का विकास क्रम

हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में कहानी एक ऐसी विधा है जो जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों, संवेदनाओं, संघर्षों और यथार्थ को प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त करती है। आधुनिक हिन्दी कहानी का विकास 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से शुरू होता है, लेकिन यह प्रक्रिया धीरे-धीरे कई चरणों में विकसित होती है। हिन्दी कहानी ने सामाजिक यथार्थ, मनुष्य की संवेदनाएँ, राजनीतिक चेतना, आंतरिक संघर्ष, स्त्री विमर्श, दलित पीड़ा और आधुनिक मनोविज्ञान को अपनी विषयवस्तु बनाते हुए एक सशक्त रूप ग्रहण किया।

हिन्दी कहानी का विकास मुख्यतः छह प्रमुख चरणों में देखा जा सकता है:

  1. प्रारंभिक काल (1900–1915)
  2. प्रेमचन्द युग (1915–1936)
  3. यथार्थवाद और प्रगतिशील युग (1936–1950)
  4. प्रयोगवाद और नई कहानी युग (1950–1970)
  5. समकालीन कहानी या साठोत्तरी युग (1970–2000)
  6. उत्तर आधुनिक या उत्तर कथा युग (2000–वर्तमान)

1. प्रारंभिक काल (1900–1915)

हिन्दी में कहानी लेखन की शुरुआत कथा साहित्य की परंपरा से हुई, जिसमें लोककथाएँ, धार्मिक आख्यान, पंचतंत्र, बेताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी जैसी कथाएँ शामिल थीं।

परन्तु आधुनिक अर्थों में, जिसमें कथानक, चरित्र, वातावरण और संवाद का संतुलित रूप हो, हिन्दी कहानी की शुरुआत भारतेंदु युग के बाद मानी जाती है।

इस काल की कहानियों में नैतिकता, उपदेश, और धार्मिकता का प्रबल प्रभाव था। भाषा सरल और पाठकों को शिक्षित करने वाली होती थी।

प्रमुख कथाकार:

  • रामचन्द्र शुक्ल,
  • पद्म सिंह शर्मा,
  • शिवप्रसाद सितारे हिन्द,
  • सुदर्शन (इनकी कहानी “शरनागत” उल्लेखनीय है)।

हालाँकि इस युग की कहानियाँ आज के मानकों पर पूरी तरह कहानी नहीं कहलातीं, फिर भी ये एक भूमिका निर्माण का काम करती हैं।


2. प्रेमचन्द युग (1915–1936)

प्रेमचन्द को हिन्दी कहानी का जनक माना जाता है। उन्होंने पहली बार कहानी को सामाजिक यथार्थ और जनजीवन के संघर्षों से जोड़ा।

उनकी कहानियाँ किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, शोषितों, पीड़ितों और साधारण जन के दुःख-दर्द को उजागर करती हैं।

प्रमुख कहानियाँ:

  • “पंच परमेश्वर”
  • “बड़े घर की बेटी”
  • “सद्गति”
  • “कफन”
  • “ईदगाह”

प्रेमचन्द की भाषा आमफहम, सरल और ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़ी होती थी। उन्होंने कहानी को केवल मनोरंजन से आगे निकालकर सामाजिक परिवर्तन का औजार बना दिया।

इस काल में अन्य लेखकों ने भी कहानियाँ लिखीं लेकिन प्रेमचन्द जैसा प्रभाव नहीं पड़ा।


3. प्रगतिशील यथार्थवाद युग (1936–1950)

1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। इसने हिन्दी कहानी को एक वैचारिक दिशा दी। कहानी अब केवल भावुकता या नैतिकता पर आधारित न होकर सामाजिक अन्याय, शोषण, गरीबी, साम्राज्यवाद, और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ने लगी।

इस युग की कहानियाँ समाज को बदलने की आकांक्षा से भरी थीं। इन कहानियों में क्रांतिकारी चेतना, संघर्षशील नायक, और शोषण के विरुद्ध आवाज थी।

प्रमुख कहानीकार:

  • यशपाल“झूला”, “पिंजड़े की उड़ान”
  • अज्ञेय“रोज”, “शरणागत”
  • भीष्म साहनी“चीफ की दावत”
  • राजेन्द्र यादव, अमृतलाल नागर, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि।

इस युग ने हिन्दी कहानी को अधिक गहराई और सामाजिक चेतना से परिपूर्ण बनाया।


4. प्रयोगवाद और नई कहानी युग (1950–1970)

1947 में भारत स्वतंत्र हो गया, लेकिन साथ ही विभाजन की त्रासदी, नैतिक मूल्यों का संकट, असुरक्षा, और एकाकीपन जैसे नए यथार्थ सामने आए।

इस नए दौर ने कहानी को नई संवेदनशीलता दी। कहानीकार अब मनुष्य के आंतरिक द्वंद्व, विकृति, मनःस्थिति और असंतोष को विषय बनाने लगे।

नई कहानी आंदोलन ने कहानी को पुराने नैतिक आदर्शों से अलग कर एक नए यथार्थवाद से जोड़ा।

प्रमुख कहानीकार:

  • मोहन राकेश“सुनसान घर”, “आवाजें”
  • कमलेश्वर“राजा निरबंसिया”
  • राजेन्द्र यादव“सारा आकाश”
  • निराला, इन्द्रजीत सिंह, मृणाल पांडे आदि।

इन कहानियों में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, शहरी जीवन की जटिलता और अस्तित्व की खोज प्रमुख थी।


5. समकालीन या साठोत्तरी युग (1970–2000)

यह काल साठोत्तरी कहानी के नाम से जाना जाता है। इसमें पहले से चली आ रही नई कहानी के ढांचे को तोड़ा गया और विविध विषयों को अपनाया गया।

शहर से लेकर गाँव, दलित से लेकर स्त्री, आदिवासी से लेकर किन्नर समुदाय – सभी वर्ग अब कहानी का विषय बनने लगे।

यह दौर विविधता, विरोध, स्वर की स्वतंत्रता, और विमर्शों का दौर था।

प्रमुख कहानीकार:

  • अभीष्ट कृष्ण,
  • मन्नू भंडारी“यही सच है”
  • उदय प्रकाश“तिरिछ”, “पीली छतरी वाली लड़की”
  • कृष्णा सोबती, कमला दास, ज्ञानरंजन, फणीश्वर नाथ ‘रेणु’

इस युग में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आंचलिकता और सामाजिक-राजनीतिक विडंबनाओं की अभिव्यक्ति प्रमुख रही।


6. उत्तर आधुनिक या उत्तर-कथा युग (2000–वर्तमान)

इक्कीसवीं सदी में कहानी की दुनिया और भी अधिक विस्तृत, बहुस्तरीय और जटिल हो गई है।

अब कहानी केवल यथार्थ या समाज तक सीमित नहीं रही, बल्कि आत्मीयता, डिजिटल युग, माइग्रेशन, ग्लोबल मुद्दों, इको-फेमिनिज्म, और आईडेंटिटी क्राइसिस जैसे विषयों पर भी लिखी जा रही है।

भाषा अधिक व्यक्तिगत, व्यंग्यात्मक, और बातचीत के लहजे में ढल गई है।

प्रमुख समकालीन कहानीकार:

  • अलका सरावगी,
  • पंकज सुबीर,
  • प्रेम भारद्वाज,
  • सुभाष पंत,
  • आशीष चौधरी आदि।

कहानी अब प्रिंट तक सीमित नहीं, बल्कि ऑनलाइन माध्यमों, ब्लॉग, वेब पोर्टल्स, और ऑडियोबुक्स के जरिये एक नए पाठक वर्ग तक पहुँच रही है।


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