प्रवासी साहित्य हिन्दी साहित्य की वह शाखा है, जिसे देश छोड़कर विदेशों में बस चुके भारतीयों द्वारा रचा गया है। यह साहित्य केवल स्थानांतरण की कथा नहीं है, बल्कि संस्कृति, पहचान, जड़ें, भाषा और द्वंद्व से जुड़ा वह अनुभव है, जो व्यक्ति अपने देश से दूर रहते हुए महसूस करता है। हिन्दी प्रवासी साहित्य ने पिछले कुछ दशकों में बहुत तेजी से अपना दायरा बढ़ाया है और आज यह हिन्दी साहित्य की एक विशिष्ट धारा के रूप में पहचाना जाता है।
प्रवासी साहित्यकारों के अनुभव आम भारतीय लेखकों से भिन्न होते हैं। वे दो संस्कृतियों के बीच जीते हैं — एक वह जिसमें वे पैदा हुए, और दूसरी वह जिसमें वे बस गए। इस टकराहट से जो संवेदना, अकेलापन, संघर्ष और आत्मचिंतन उपजता है, वही प्रवासी साहित्य का मुख्य तत्त्व बनता है। इसमें नॉस्टेल्जिया, यानी अपने देश और संस्कृति के प्रति एक भावनात्मक लगाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
हिन्दी में प्रवासी साहित्य का विकास मुख्यतः अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, फिजी, सूरीनाम, मारीशस, दक्षिण अफ्रीका, खाड़ी देश, आदि में बसे लेखकों द्वारा हुआ है। इन लेखकों ने अपनी रचनाओं में प्रवासी जीवन की जटिलताओं, संस्कृति के संघर्ष, नस्लीय भेदभाव, भाषाई संकट, और पहचान की खोज को आधार बनाया है।
प्रमुख हिन्दी प्रवासी लेखकों में गुरुदत्त, विजय मिश्रा, विद्यापति दुबे, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, रामकुमार मुखोपाध्याय, महुआ माजी, शांतिनाथ देसाई, कमलाकांत त्रिपाठी, चित्रा मुद्गल, तेजेन्द्र शर्मा, भारती मुखर्जी आदि का नाम उल्लेखनीय है। तेजेन्द्र शर्मा ने लंदन प्रवास के अनुभवों को आधार बनाकर ‘एक औरत : तीन बटा चार’, ‘ढिबरी टाइट’, आदि कहानियों में प्रवासी मानसिकता को बखूबी उकेरा है।
प्रवासी साहित्य में आत्मविमर्श की प्रवृत्ति भी देखी जाती है — जैसे “हम कौन हैं?”, “हमारी पहचान क्या है?”, “हम अपनी जड़ों से कितने जुड़े हैं?”। इसके साथ ही यह साहित्य मूल देश और नए देश के बीच पुल का कार्य करता है — एक ओर वह अपने अतीत से जुड़ा है, दूसरी ओर नए परिवेश से सामंजस्य बैठाने की कोशिश करता है।
हिन्दी में प्रवासी साहित्य की एक विशेष बात यह है कि यह केवल कथा-कहानियों तक सीमित नहीं, बल्कि इसमें कविता, आत्मकथा, संस्मरण, नाटक, और यात्रा-वृत्तांत भी शामिल हैं। इसका विस्तार केवल भारतवंशियों तक नहीं, बल्कि उन विदेशी पाठकों तक भी पहुँचा है जो भारतीय संस्कृति में रुचि रखते हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि हिन्दी प्रवासी साहित्य विस्थापन की पीड़ा, संस्कृति की खोज, और मानव संबंधों की सार्वभौमिकता का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बनकर उभरा है। यह साहित्य हिन्दी भाषा की वैश्विकता का प्रतीक भी है।
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