समाजशास्त्रीय दृष्टि से साहित्य के अध्ययन की भारतीय परम्परा


भारतीय समाज में साहित्य का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। यह केवल कला, कल्पना या भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रहा, बल्कि समाज की सोच, संरचना, समस्याओं और परिवर्तनों का दस्तावेज भी रहा है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से जब हम साहित्य का अध्ययन करते हैं, तो हम उसे केवल ‘शब्दों की कला’ के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन, सांस्कृतिक मूल्यों, वर्ग संघर्ष, जातीय संरचना, लैंगिक असमानता, धार्मिक विविधता और सामाजिक परिवर्तन को प्रतिबिंबित करने वाले माध्यम के रूप में देखते हैं।

भारतीय साहित्य की परंपरा अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण रही है। वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक, साहित्य ने समय-समय पर समाज को देखा, समझा और दर्शाया है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह परंपरा और भी अधिक अर्थपूर्ण हो जाती है, क्योंकि यह दृष्टिकोण साहित्य को समाज के दर्पण के रूप में प्रस्तुत करता है।


प्राचीन भारतीय साहित्य में समाजशास्त्रीय दृष्टि

भारतीय साहित्य की शुरुआत वेदों और उपनिषदों से होती है। ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था, स्त्रियों की स्थिति, सामाजिक अनुष्ठान, यज्ञ आदि का उल्लेख है। ये ग्रंथ धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं, लेकिन इनमें छिपा सामाजिक ढांचा भी समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए उपयोगी है।

उदाहरण के तौर पर, वेदों में वर्ण व्यवस्था का विस्तार मिलता है जो उस समय की सामाजिक संरचना को दर्शाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की वर्गीकरण व्यवस्था केवल धार्मिक आदेश नहीं थी, बल्कि एक सामाजिक संगठन का हिस्सा थी। यह समाज में श्रम विभाजन और सत्ता संरचना को दर्शाती है।

महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्य न केवल धार्मिक ग्रंथ हैं, बल्कि उस युग के समाज, उसकी नैतिकता, राजनीति, स्त्री की स्थिति, युद्ध और सत्ता संघर्ष को भी प्रकट करते हैं। द्रौपदी का चीरहरण, राम की सीता के प्रति शंका, ये केवल कथानक नहीं हैं, बल्कि उस समय की पितृसत्तात्मक सोच, स्त्री की सामाजिक स्थिति और पुरुष वर्चस्व को भी उजागर करते हैं।


मध्यकालीन साहित्य और समाज

मध्यकाल में भक्ति आंदोलन ने भारतीय साहित्य को एक नया सामाजिक दृष्टिकोण दिया। कबीर, रैदास, मीराबाई, सूरदास जैसे कवियों ने अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक भेदभाव, जातिवाद, धर्म के नाम पर पाखंड, और धार्मिक कट्टरता का विरोध किया।

कबीर के दोहे सीधे-सीधे ब्राह्मणवाद, मूर्तिपूजा और धार्मिक रुढ़ियों पर प्रहार करते हैं। उनका साहित्य समाज के शोषित वर्गों की आवाज बनकर उभरा। “जाति न पूछो साधु की” जैसे कथन सीधे उस समय की जातिवादी मानसिकता को चुनौती देते हैं।

मीराबाई का साहित्य भी स्त्री स्वतंत्रता और भक्ति के माध्यम से सामाजिक बंधनों को तोड़ने की कोशिश करता है। उन्होंने अपने जीवन और रचनाओं के माध्यम से यह सिद्ध किया कि स्त्री भी ईश्वर की आराधना में पुरुष के समान अधिकार रखती है, चाहे समाज उसे स्वीकार करे या नहीं।

रैदास जैसे दलित कवि समाज के सबसे निचले तबके से थे, और उनका साहित्य दलित चेतना की पहली आवाज मानी जा सकती है। वे अपने भक्ति साहित्य के माध्यम से सामाजिक बराबरी और सम्मान की मांग करते हैं।


आधुनिक काल में साहित्य और समाज

औपनिवेशिक काल में जब अंग्रेजों का शासन भारत पर था, तब साहित्य में एक नई चेतना आई। यह समय सामाजिक सुधार आंदोलनों का था, जब राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती जैसे सुधारकों ने समाज की कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। इसका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा।

हिंदी साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी का जनक माना जाता है। उनके नाटक और कविताएं तत्कालीन सामाजिक समस्याओं जैसे बाल विवाह, विधवा विवाह निषेध, दहेज प्रथा आदि पर आधारित थीं।

प्रेमचंद का साहित्य समाजशास्त्रीय दृष्टि से सबसे प्रभावशाली माना जाता है। उन्होंने किसान, मजदूर, स्त्री, दलित, निम्न वर्ग, ग्रामीण जीवन, शोषण, सामंतवाद, पूंजीवाद और औपनिवेशिक शासन के प्रभावों को गहराई से उजागर किया।

उनकी कहानियाँ जैसे “कफन”, “पूस की रात”, “सद्गति”, “बड़े घर की बेटी” केवल भावनात्मक कहानियाँ नहीं हैं, बल्कि समाज के भीतरी ढांचे का विश्लेषण करती हैं। “गोदान” उपन्यास में होरी नामक किसान की त्रासदी उस समय की कृषि व्यवस्था, कर्ज, सामाजिक मर्यादा और आर्थिक शोषण का यथार्थ चित्रण है।


स्वतंत्रता संग्राम और साहित्य

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी साहित्य सामाजिक आंदोलन का एक माध्यम बन गया। रामधारी सिंह दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवियों ने अपने काव्य में राष्ट्रभक्ति, सामाजिक चेतना और परिवर्तन की पुकार की।

महादेवी वर्मा और सुभद्राकुमारी चौहान जैसे लेखिकाओं ने महिला चेतना को साहित्य में स्थान दिया। यह वह समय था जब महिलाएं साहित्य के माध्यम से अपनी बात रखने लगीं, जो भारतीय समाज में एक बड़ी सामाजिक प्रगति थी।


स्वातंत्र्योत्तर भारत में साहित्य और समाज

भारत की स्वतंत्रता के बाद साहित्य में सामाजिक यथार्थ और तीव्र हो गया। अब साहित्यकारों ने जातिवाद, वर्गभेद, स्त्री उत्पीड़न, धार्मिक कट्टरता, शहरीकरण, बेरोजगारी, उपभोक्तावाद, और असमानता जैसे विषयों को प्रमुखता से उठाया।

धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, यशपाल, निर्मल वर्मा जैसे लेखकों ने नई कहानी और यथार्थवादी उपन्यासों के माध्यम से समाज के नए प्रश्नों को साहित्य में जगह दी।

दलित साहित्य इस काल की एक बड़ी उपलब्धि रही। यह साहित्य उस समाज की पीड़ा, विद्रोह और आत्मगौरव का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे सदियों से हाशिये पर रखा गया। ओमप्रकाश वाल्मीकि, शरणकुमार लिंबाले, कांची इलैय्या जैसे लेखकों ने अपने आत्मकथात्मक साहित्य के माध्यम से दलित समाज के सामाजिक अपमान, भेदभाव और संघर्ष को सामने रखा।

स्त्री लेखन भी इसी दौर में सशक्त रूप से उभरा। मन्नू भंडारी, महाश्वेता देवी, प्रभा खेतान, कृष्णा सोबती जैसी लेखिकाओं ने स्त्री जीवन, यौन शोषण, घरेलू हिंसा, सामाजिक भूमिका, अधिकार और पहचान जैसे विषयों को उठाया।

महाश्वेता देवी की कहानियाँ आदिवासी समाज के संघर्ष और सरकारी तंत्र के दमन को सामने लाती हैं। ‘द्रौपदी’ जैसी कहानी स्त्री की देह और प्रतिरोध की सशक्त अभिव्यक्ति है।


आधुनिक और समकालीन साहित्य में समाजशास्त्रीय चिंतन

समकालीन साहित्य में अब समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण और अधिक विविध हो गया है। अब लेखक केवल गांव और किसान तक सीमित नहीं हैं, बल्कि शहरों की भीड़, मिडिल क्लास की कुंठाएं, बेरोजगारी, मानसिक तनाव, नारीवाद, क्वीयर (LGBTQ+) मुद्दे, उपभोक्तावादी संस्कृति, और मीडिया के प्रभाव जैसे आधुनिक सामाजिक पहलुओं को उठाते हैं।

अनीता भारती, राजेन्द्र यादव, उदय प्रकाश, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल जैसे लेखक समकालीन सामाजिक जीवन की जटिलताओं को अपने साहित्य में लाते हैं।

उदय प्रकाश की कहानियों में पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर आम आदमी के टूटते हुए सपनों की तस्वीर मिलती है।

राजेन्द्र यादव ने “हंस” पत्रिका के माध्यम से स्त्री और दलित लेखन को मंच प्रदान किया। वे बार-बार कहते थे कि “लेखन समाज के लिए होना चाहिए, न कि समाज से बचकर।”


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