समाज में साहित्य और साहित्यकार की स्थिति पर विचार कीजिए।

साहित्य और समाज का संबंध अत्यंत घनिष्ठ एवं परस्पर पूरक है। साहित्य समाज का दर्पण कहा गया है क्योंकि यह न केवल समाज की वास्तविकताओं को उजागर करता है, बल्कि उसके विचारों, भावनाओं, मूल्यों और परिवर्तनों को भी अभिव्यक्त करता है। साहित्यकार वही व्यक्ति होता है जो समाज की चेतना को पकड़कर उसे भाषा के माध्यम से संसार के समक्ष प्रस्तुत करता है। परंतु आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में जब हम साहित्य और साहित्यकार की स्थिति का विश्लेषण करते हैं, तो अनेक परिवर्तन, चुनौतियाँ, और अंतर्विरोध दृष्टिगोचर होते हैं।

1. साहित्य का सामाजिक स्वरूप

साहित्य सामाजिक संरचना, उसकी समस्याओं, संघर्षों, सांस्कृतिक मूल्यों, और राजनीतिक परिवेश का जीवंत चित्रण करता है। हिंदी साहित्य में ही प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन, अज्ञेय, मन्नू भंडारी, धर्मवीर भारती आदि साहित्यकारों ने अपने समय के समाज को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से चित्रित किया है।

कभी साहित्य समाज में व्याप्त कुरीतियों पर चोट करता है, जैसे ‘गोदान’ उपन्यास में प्रेमचंद ने किसानों की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है। तो कभी वह समाज के आदर्शों को स्थापित करता है, जैसे ‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास ने आदर्श राजा, आदर्श पुत्र और आदर्श नारी की कल्पना की।

साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज भी है, जो हमें यह बताता है कि कोई युग कैसा था, लोग कैसे सोचते थे, और किस प्रकार की समस्याएँ थीं। इस तरह साहित्य न केवल समाज से प्रभावित होता है, बल्कि समाज को प्रभावित भी करता है।

2. वर्तमान समाज में साहित्य की भूमिका

आज के तकनीकी युग में, जहाँ सूचना का संचार त्वरित गति से होता है, साहित्य की भूमिका में कुछ परिवर्तन अवश्य आए हैं। इंटरनेट, सोशल मीडिया, मोबाइल ऐप्स, और ऑनलाइन ब्लॉग्स ने लेखन और पाठन के स्वरूप को नया आयाम दिया है। अब साहित्य केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं है, बल्कि डिजिटल माध्यम से जनसामान्य तक पहुँचने लगा है।

आज का साहित्य पहले से कहीं अधिक विविध हो गया है। दलित साहित्य, स्त्री साहित्य, आदिवासी साहित्य जैसे नए विमर्श समाज में अपनी जगह बना रहे हैं। ये साहित्यिक प्रवृत्तियाँ समाज के उन वर्गों की आवाज़ बन रही हैं जिन्हें पहले मुख्यधारा में जगह नहीं मिलती थी।

साथ ही, अब साहित्य केवल ‘उच्च’ या ‘शुद्ध’ भाषा में नहीं लिखा जा रहा है। आम बोलचाल की भाषा में लिखी रचनाएँ, कविता, गद्य, और डायरी शैली का लेखन अधिक लोकप्रिय हो रहा है। इससे यह प्रतीत होता है कि साहित्य अब अधिक जनसामान्य के निकट है और उसका लोकतंत्रीकरण हुआ है।

3. साहित्यकार की स्थिति और पहचान

एक समय था जब साहित्यकार समाज के ‘मार्गदर्शक’ माने जाते थे। वे सामाजिक चेतना के वाहक होते थे और उनकी लेखनी समाज को दिशा देती थी। कबीर, तुलसीदास, रहीम, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा आदि साहित्यकारों का समाज में विशेष सम्मान था। उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाता था और वे सामाजिक विमर्श के केंद्र में रहते थे।

परंतु आज के समय में साहित्यकार की स्थिति में स्पष्ट परिवर्तन देखा जा सकता है। समाज में उनका प्रभाव सीमित होता जा रहा है। अब साहित्य की जगह टीवी, सिनेमा, वेब सीरीज और यूट्यूब जैसे माध्यमों ने ले ली है। इससे साहित्य और साहित्यकार की प्रतिष्ठा में कमी आई है।

यह भी देखने में आया है कि साहित्यकार अब समाज के लिए ‘नेता’ नहीं, बल्कि ‘दर्शक’ की स्थिति में आ गया है। वह समस्याओं को देखता है, उनका वर्णन करता है, परंतु उसकी आवाज़ समाज के मुख्य मंच तक पहुँच नहीं पाती। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, जैसे साहित्य का विमर्श केंद्रों में सिमटना, आम जनता से उसकी दूरी, या आधुनिक जीवन की व्यस्तता के चलते लोगों का साहित्य से कटना।

4. साहित्यिक संस्थाएँ और पुरस्कारों की भूमिका

आज भी देश में अनेक साहित्यिक संस्थाएँ जैसे साहित्य अकादमी, हिंदी साहित्य सम्मेलन, भारतीय ज्ञानपीठ, इत्यादि सक्रिय हैं। ये संस्थाएँ साहित्यिक सृजन को प्रोत्साहित करने का कार्य करती हैं। साथ ही, विभिन्न पुरस्कारों के माध्यम से साहित्यकारों को सम्मानित किया जाता है, जिससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बनी रहती है।

परंतु इन संस्थाओं में भी अब राजनीति, गुटबाज़ी और पक्षपात जैसे आरोप लगने लगे हैं। कई बार ऐसा देखा गया है कि योग्य साहित्यकारों को नजरअंदाज़ किया गया, जबकि समीकरणों के अनुरूप चलने वालों को पुरस्कार मिले। इससे साहित्यकारों की निष्पक्षता और सामाजिक भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगने लगते हैं।

5. साहित्य में सामाजिक मुद्दों की उपस्थिति

वर्तमान समय में साहित्य ने अनेक सामाजिक मुद्दों को अपनी रचनात्मकता का विषय बनाया है। दलित उत्पीड़न, स्त्री अधिकार, जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता, भौतिकवाद, पर्यावरण संकट, बेरोज़गारी, किसान आत्महत्या, LGBTQ+ जैसे विषय अब साहित्य में खुलकर आ रहे हैं।

इससे यह संकेत मिलता है कि साहित्यकार अभी भी समाज के प्रति सजग हैं और वे समाज की पीड़ा को समझते हुए उसे स्वर दे रहे हैं। उदाहरणस्वरूप, ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ या उषा प्रियंवदा और ममता कालिया की कहानियाँ, इन सबमें समाज की गूंज स्पष्ट सुनाई देती है।

साहित्यकार इन मुद्दों को उठाकर न केवल अपनी भूमिका निभा रहे हैं, बल्कि पाठकों को सोचने, समझने और प्रश्न करने के लिए भी प्रेरित कर रहे हैं।

6. शिक्षा और युवा पीढ़ी में साहित्य की स्थिति

आज के समय में युवाओं का साहित्य की ओर झुकाव अपेक्षाकृत कम दिखाई देता है। इसका एक प्रमुख कारण शिक्षा व्यवस्था में साहित्य की घटती भूमिका है। स्कूल और कॉलेजों में साहित्यिक पाठ्यक्रम अब अधिक व्यावसायिक और तकनीकी हो गया है।

नतीजतन, युवा वर्ग साहित्य को बोझिल और अप्रासंगिक समझने लगा है। वे सामाजिक मीडिया, त्वरित मनोरंजन और कैरियर के दबाव में साहित्यिक चिंतन से दूर होते जा रहे हैं। इससे साहित्य और साहित्यकार की स्थिति में गिरावट देखी जा सकती है।

हालाँकि, एक दूसरा पक्ष भी है – कुछ युवा साहित्यकार ब्लॉग, इंस्टाग्राम पोएट्री, यूट्यूब शॉर्ट्स और पॉडकास्ट जैसे माध्यमों से साहित्य को नया स्वरूप दे रहे हैं। इस डिजिटल साहित्य ने नयी संभावनाएँ खोली हैं, परंतु इसकी गहराई और गुणवत्ता पर अकसर प्रश्न उठते हैं।

7. साहित्य और सत्ता का संबंध

साहित्यकार और सत्ता के बीच संबंध ऐतिहासिक रूप से जटिल रहे हैं। साहित्यकारों ने अक्सर सत्ता की नीतियों की आलोचना की है और जनसरोकारों की बात की है। यही कारण है कि उन्हें अक्सर सत्ता से टकराव का सामना करना पड़ा है।

वर्तमान समय में भी कुछ साहित्यकार निर्भीकता से सत्ता की आलोचना करते हैं, जबकि कुछ साहित्यकार सत्ता के पक्ष में भी लेखन करते हैं। इससे साहित्य का राजनीतिकरण होता है, जो उसकी स्वायत्तता को प्रभावित करता है।

इस परिस्थिति में साहित्यकार के समक्ष यह चुनौती होती है कि वह निष्पक्ष रहकर समाज के लिए लिख सके, न कि किसी विचारधारा या सत्ता के पक्ष में।


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