लोकप्रिय साहित्य का समाजशास्त्र एक ऐसा विषय है जो साहित्य और समाज के बीच के पारस्परिक संबंध को गहराई से समझने का अवसर प्रदान करता है। ‘लोकप्रिय साहित्य’ से आशय उस साहित्य से है जिसे आम जनमानस पढ़ता है और जिसमें उनकी भावनाएँ, इच्छाएँ, संघर्ष और कल्पनाएँ प्रतिबिंबित होती हैं। यह साहित्य प्रायः पत्रिकाओं, अखबारों, टीवी धारावाहिकों, फिल्मी कहानियों, प्रेम-कथाओं, जासूसी उपन्यासों, लोकगीतों, कॉमिक्स, और अब सोशल मीडिया की कहानियों के रूप में समाज में उपस्थित रहता है।
लोकप्रिय साहित्य का समाजशास्त्र इस बात का अध्ययन करता है कि यह साहित्य किस प्रकार समाज को प्रभावित करता है, समाज से प्रभावित होता है और सामाजिक संरचनाओं, वर्ग-संघर्षों, लिंग संबंधों, सांस्कृतिक रूढ़ियों और सामूहिक चेतना को कैसे अभिव्यक्त करता है। यह एक तरह से समाज के ‘मन’ को पढ़ने का जरिया है, जहाँ पाठक और रचनाकार दोनों सामाजिक भूमिका निभाते हैं।
इस साहित्य के सामाजिक पक्ष को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम यह जानें कि लोकप्रिय साहित्य किन सामाजिक वर्गों के लिए और किनके द्वारा रचा जाता है। उदाहरण के लिए, हिंदी में प्रेमचंद की कहानियाँ आरंभिक दौर में लोकप्रिय साहित्य का हिस्सा मानी जा सकती हैं, क्योंकि वे आम जनता की समस्याओं – गरीबी, जातिवाद, किसानों की पीड़ा आदि – को केंद्र में रखती थीं। धीरे-धीरे प्रेम कहानियाँ, जासूसी कथाएँ और फंतासी आधारित उपन्यासों ने अपनी जगह बना ली, जो आमजन की रोजमर्रा की जटिलताओं से पलायन देने वाले माध्यम बन गए।
लोकप्रिय साहित्य प्रायः समाज की मुख्यधारा की अपेक्षाओं और पूर्वग्रहों को पुष्ट करता है। उदाहरण के लिए, कई बार इसमें स्त्री पात्रों को पारंपरिक भूमिकाओं में ही प्रस्तुत किया जाता है – जैसे त्यागमयी पत्नी, आदर्श बहू या प्रेमिका। यह साहित्य बाजार की मांग पर आधारित होता है, अतः इसमें नवाचार की सीमाएं होती हैं। लेकिन दूसरी ओर, लोकप्रिय साहित्य कभी-कभी रूढ़ियों को तोड़ने और नए विमर्शों को जन्म देने का माध्यम भी बनता है – जैसे दलित साहित्य या महिला लेखन जो बाद में ‘लोकप्रिय’ बनता है और समाज की सोच बदलने में सहायक होता है।
लोकप्रिय साहित्य में भाषा की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती है। इसमें प्रायः सरल, बोलचाल की भाषा का प्रयोग होता है ताकि पाठक वर्ग आसानी से उससे जुड़ सके। भाषा में स्थानीयता, क्षेत्रीयता और मौखिक संस्कृति की छाप होती है, जो समाज के विविध स्तरों को जोड़ती है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि यह साहित्य समाज के विभिन्न समूहों को कैसे जोड़ता है या उनमें भिन्नता को कैसे उभारता है।
इसके अतिरिक्त, लोकप्रिय साहित्य उपभोक्तावादी संस्कृति से भी गहराई से जुड़ा है। कई बार इसे ‘मास कल्चर’ या ‘कंज्यूमर कल्चर’ का हिस्सा माना जाता है, जहाँ साहित्य को एक उत्पाद की तरह देखा जाता है और लेखक की भूमिका भी बाजार-उन्मुख हो जाती है। ऐसी स्थिति में साहित्य का उद्देश्य सामाजिक चेतना जाग्रत करना न होकर मनोरंजन प्रदान करना बन जाता है। फिर भी, इसी मनोरंजन के माध्यम से कई बार सामाजिक मुद्दे बड़े प्रभावी ढंग से सामने आ जाते हैं – जैसे टीवी सीरियलों या फिल्मों में सामाजिक भेदभाव, घरेलू हिंसा, भ्रष्टाचार आदि का चित्रण।
इस प्रकार, लोकप्रिय साहित्य का समाजशास्त्र हमें यह समझने में मदद करता है कि साहित्य मात्र कलात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक संरचनाओं और शक्तियों का एक आईना है। यह समाज के मनोविज्ञान, सामूहिक चेतना और सांस्कृतिक परिवर्तनों का दस्तावेज बन जाता है। अतः इसका अध्ययन समाज को गहराई से समझने का एक आवश्यक उपकरण बन जाता है।
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