संदर्भ:
यह पद रीतिकालीन कवि घनानंद की कविता से लिया गया है। वे श्रृंगारिक भावनाओं को भक्ति में रूपांतरित करने वाले विरक्त कवि थे। यह पद उन्होंने उस समय लिखा जब वे सांसारिक छल-कपट और कृत्रिम प्रेम से विरक्त होकर सच्चे आत्मिक प्रेम (राधा-कृष्ण की भक्ति) की ओर उन्मुख हो चुके थे।
यहाँ कवि सच्चे प्रेम की प्रकृति को स्पष्ट करता है, और बताता है कि ईश्वर या सच्चे प्रेम का मार्ग केवल उनके लिए है जो बिलकुल निष्कपट, निर्मल और आत्मत्यागी हों।
शब्दार्थ और भावार्थ:
- “अति सूधो” – अत्यंत सीधा-सादा, सरल।
- “सनेह को मारग” – प्रेम (भक्ति) का मार्ग।
- “सयानप बाँक” – चतुराई या टेढ़ापन।
- “साँचे चलै” – सच्चा व्यक्ति ही चल सकता है।
- “तजि आपुनपौ” – अपनेपन, अहंकार को त्याग कर।
- “झझकै” – काँपता है, डरता है।
- “कपटि जे निसाँक नहीं” – जो कपटी हैं और जिनमें सत्य का उजाला नहीं है।
भावार्थ:
प्रेम का मार्ग अत्यंत सरल, निष्कलंक और सीधा है, जिसमें कोई भी चालाकी या बनावट नहीं चलती। इस मार्ग पर केवल वही चल सकता है जो सच्चा हो, और जिसने अपने अहं को त्याग दिया हो। परंतु जो लोग कपटी होते हैं, जिनमें सच्चाई का कोई प्रकाश नहीं होता, वे इस पथ पर चलते हुए डरते हैं, हिचकते हैं।
व्याख्या (Human language में):
घनानंद इस पद में कह रहे हैं कि प्रेम — चाहे वह सांसारिक हो या ईश्वरीय — एक ऐसा रास्ता है जो बहुत ही सीधा और पारदर्शी है। इसमें छल, चालाकी, बनावट या दिखावा नहीं चल सकता। अगर किसी के मन में चतुराई है, स्वार्थ है, या कोई निजी योजना है, तो वह इस मार्ग पर टिक ही नहीं सकता।
सच्चा प्रेम तो वहाँ टिकता है, जहाँ व्यक्ति खुद को छोड़ देता है — “तजि आपुनपौ” — यानी जो “मैं” और “मेरा” को त्याग देता है। आत्म-त्याग ही इस मार्ग की पहली शर्त है।
अब घनानंद कहते हैं कि जो लोग कपटी होते हैं, बनावटी होते हैं, जिनमें सच्चाई का कोई उजाला (निसाँक) नहीं होता, वे इस प्रेम के रास्ते को देखकर ही डर जाते हैं। उन्हें लगता है कि इस मार्ग पर वे टिक नहीं पाएँगे, क्योंकि यहाँ उनका स्वार्थ, उनकी चालाकी, उनका झूठ सब बेनकाब हो जाएगा।
यहाँ प्रेम का मतलब केवल राधा-कृष्ण के लौकिक प्रेम से नहीं है, बल्कि आत्मिक, सच्चे, समर्पणमय और पूर्णतया निष्कलंक भक्ति से है। घनानंद ने प्रेम को पूजा बना दिया है — जहाँ प्रेम केवल लेना नहीं, बल्कि खुद को पूरी तरह अर्पित करना है।
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