अनुवाद के अभिलक्षण’ पर टिप्पणी कीजिए


जब एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा में इस तरह से प्रस्तुत किया जाए कि उसका अर्थ, भाव और असर वैसा ही बना रहे जैसा मूल में था, तो उसे अनुवाद कहा जाता है। लेकिन हर अनुवाद अच्छा या आदर्श नहीं होता। एक आदर्श अनुवाद वही माना जाता है, जो न केवल शाब्दिक रूप से सही हो, बल्कि वह मूल रचना की आत्मा, विचार, भावना और शैली को भी अपने साथ लेकर चले। आदर्श अनुवाद के कुछ ऐसे गुण या अभिलक्षण होते हैं जो उसे सामान्य अनुवाद से अलग और बेहतर बनाते हैं।

सबसे पहला अभिलक्षण होता है भावानुवाद की निपुणता। अनुवाद सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है। यह भावों का संप्रेषण है। एक आदर्श अनुवाद वही होता है जिसमें मूल लेखक की भावना, उसका विचार, और उसका उद्देश्य ज्यों का त्यों बना रहता है, भले ही भाषा बदल गई हो। अगर मूल लेखक ने जोश, करुणा, व्यंग्य या प्रेम की भावना से लिखा है, तो अनुवाद में भी वही रंग होना चाहिए।

दूसरा अभिलक्षण है भाषायी शुद्धता। अनुवाद जिस भाषा में किया जा रहा है, वह भाषा व्याकरण की दृष्टि से सही, प्रवाहमयी और स्पष्ट होनी चाहिए। अशुद्ध, बेमेल या जटिल भाषा पाठक के लिए अर्थ की उलझन पैदा कर सकती है। इसलिए अनुवादक को दोनों भाषाओं पर गहरी पकड़ होनी चाहिए।

तीसरा महत्त्वपूर्ण गुण है संदर्भ की समझ। कभी-कभी शब्दों का सीधा अनुवाद अर्थ का अनर्थ कर देता है। जैसे भारतीय संस्कृति में ‘गंगा’ का जो महत्व है, उसे किसी विदेशी भाषा में सीधा “river” कहना पर्याप्त नहीं होगा। अनुवादक को यह समझ होनी चाहिए कि वह किस सांस्कृतिक, सामाजिक या ऐतिहासिक सन्दर्भ को अनुवाद कर रहा है, और वह उस भावना को पाठकों तक किस तरह पहुँचाए।

चौथा अभिलक्षण है मूल शैली और स्वर का संरक्षण। हर लेखक की अपनी एक शैली होती है — कोई सरल लिखता है, कोई काव्यात्मक, कोई तकनीकी। आदर्श अनुवाद में यह शैली बनी रहनी चाहिए। अगर कोई व्यंग्यात्मक लेख है, तो अनुवाद भी उसी लहजे में होना चाहिए।

पाँचवाँ गुण है सहजता और प्रवाह। पढ़ने में अनुवादित पाठ ऐसा लगे कि वह मूल रूप से उसी भाषा में लिखा गया है। वाक्य ऐसे गूँथे जाएँ कि पाठक को यह महसूस न हो कि यह किसी दूसरी भाषा से लिया गया है।

इसके अलावा तकनीकी सटीकता, संज्ञा और विशेषणों की सही पहचान, शब्दों के सही चयन, और संवादों की प्रामाणिकता भी आदर्श अनुवाद के ज़रूरी लक्षणों में आते हैं।

आदर्श अनुवाद वही होता है जो न तो मूल पाठ की आत्मा को खोता है और न ही लक्ष्य भाषा के सौंदर्य को।

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