सिक्ख धर्म के मूल प्रत्ययों पर एक संक्षिप्त निबंध लिखिए।

सिक्ख धर्म एक ऐसा धार्मिक और आध्यात्मिक मार्ग है जिसकी नींव 15वीं सदी में भारत के पंजाब क्षेत्र में गुरु नानक देव जी ने रखी थी। यह धर्म उस समय के धार्मिक आडंबर, जातिवाद, भेदभाव और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध खड़ा हुआ। समय के साथ दस गुरुओं की शिक्षाओं, उनके जीवन आदर्शों और गुरुबाणी के माध्यम से यह धर्म एक संगठित और विशिष्ट परंपरा के रूप में विकसित हुआ।

सिक्ख धर्म के मूल प्रत्यय वे आधारभूत सिद्धांत हैं, जो इसकी सम्पूर्ण विचारधारा, धार्मिक व्यवहार और सामाजिक दृष्टिकोण को दिशा देते हैं। इन प्रत्ययों को जानना केवल धार्मिक जानकारी भर नहीं है, बल्कि यह एक जीवनदृष्टि को समझने जैसा है।


1. एक ओंकार (एक ईश्वर की धारणा)

सिक्ख धर्म का सबसे पहला और प्रमुख प्रत्यय है — “एक ओंकार“, जिसका अर्थ है – ईश्वर एक है। वह सर्वव्यापक, निराकार, अजन्मा, अविनाशी और सत्य है। गुरु नानक देव जी ने “एक ओंकार सतनाम” के साथ गुरु ग्रंथ साहिब की शुरुआत की, जो ईश्वर की एकता और सत्यता की उद्घोषणा है।

यह प्रत्यय न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी समानता की भावना को जन्म देता है। जब ईश्वर एक है और सबका रचयिता है, तो कोई उच्च या नीच नहीं है। यही भाव सभी मनुष्यों को एक समान दृष्टि से देखने की प्रेरणा देता है।


2. नाम जपना (ईश्वर के नाम का स्मरण)

सिक्ख धर्म में “नाम जपना” या “नाम सिमरन” का अत्यधिक महत्त्व है। इसका तात्पर्य है – ईश्वर के नाम का निरंतर स्मरण करना, चाहे वह वाणी से हो, मन से हो या कर्म के द्वारा।

“वाहेगुरु” — यह नाम सिक्ख धर्म में ईश्वर के स्मरण के लिए प्रयोग होता है। मान्यता है कि नाम जपने से मन शुद्ध होता है, अहंकार कम होता है और आत्मा परमात्मा से जुड़ती है।

गुरु ग्रंथ साहिब में कहा गया है —
“नाम जपत अगन सागर तरिए।”
अर्थात नाम जपने से व्यक्ति जीवन सागर को पार कर सकता है।


3. कीरत करो (ईमानदारी से श्रम करना)

सिक्ख धर्म में केवल ध्यान, प्रार्थना या भक्ति को ही नहीं, बल्कि श्रम और परिश्रम को भी आध्यात्मिक जीवन का हिस्सा माना गया है। “कीरत करो” का अर्थ है — ईमानदारी से मेहनत करके जीवन यापन करना।

गुरु नानक देव जी ने आलस्य और भिक्षावृत्ति को अस्वीकार करते हुए कर्म की प्रधानता को स्वीकार किया। उनका यह मत था कि व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि अपने श्रम से रोटी कमाकर खानी चाहिए।

गुरु ग्रंथ साहिब में लिखा गया है —
“घालि खाइ किछु हथहु देइ। नानक राहु पछाणहि सेइ।”
अर्थात जो मेहनत करके खाता है और दूसरों को भी देता है, वही सच्चा मार्ग पहचानता है।


4. वंड छको (बांट कर खाना और सेवा करना)

“वंड छको” सिक्ख धर्म का एक और मूल प्रत्यय है, जिसका अर्थ है – जो कुछ मिला है, उसे दूसरों के साथ बांटना। इसमें केवल भौतिक वस्तुएं ही नहीं आतीं, बल्कि समय, सेवा, ज्ञान और प्रेम भी इसमें सम्मिलित हैं।

सिक्ख धर्म की यह भावना लंगर (सामूहिक भोजन) में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है, जहाँ जात-पात, धर्म, लिंग या वर्ग के भेद के बिना सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यह प्रतीक है सामाजिक समता और साझा मानवता का।

वंड छको के द्वारा सिक्ख धर्म करुणा, दया और सहयोग की भावना को बढ़ावा देता है।


5. गुरु की महत्ता

सिक्ख धर्म में “गुरु” शब्द का विशेष महत्त्व है। ‘गु’ का अर्थ है – अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है – प्रकाश। गुरु वह है जो अज्ञान के अंधकार से निकालकर आत्मज्ञान की रोशनी देता है।

सिक्ख धर्म में दस गुरुओं की परंपरा रही है — गुरु नानक से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी तक। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अंतिम समय में गुरु ग्रंथ साहिब को ही स्थायी गुरु घोषित कर दिया। इसलिए आज सिक्खों के लिए गुरु ग्रंथ साहिब ही उनका जीवित गुरु है।

गुरु ही मार्गदर्शक है, गुरु ही सत्य का माध्यम है। सिक्ख धर्म में गुरु की सेवा, आज्ञा पालन और गुरबाणी में आस्था को अत्यधिक महत्त्व प्राप्त है।


6. सेवा (निःस्वार्थ सेवा)

“सेवा” या निःस्वार्थ सेवा सिक्ख जीवन शैली का मूल है। यह सेवा केवल मानव की ही नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि की हो सकती है। इसे ‘कर सेवा’ के नाम से जाना जाता है।

लंगर सेवा, गुरुद्वारे की सफाई, तीर्थ स्थलों की देखभाल, आपदा के समय सहायता, और समाज में सहयोग — ये सब सेवा के रूप हैं।

सेवा से अहंकार का क्षय होता है, समाज में समरसता आती है और व्यक्ति का आंतरिक शुद्धिकरण होता है।


7. पाँच ‘ककार’ (5 Ks)

सिक्ख धर्म के अनुयायियों के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने “पाँच ककार” की व्यवस्था की, जो एक सिख की धार्मिक पहचान को दर्शाते हैं। ये पाँच प्रतीक हैं:

  1. केश – बिना काटे हुए बाल; प्राकृतिक रूप में ईश्वर की देन का सम्मान
  2. कंघा – लकड़ी की कंघी; स्वच्छता और अनुशासन का प्रतीक
  3. कड़ा – लोहे का ब्रेसलेट; ईश्वर की आज्ञा और कर्मबद्धता का प्रतीक
  4. कृपाण – छोटा तलवारनुमा शस्त्र; अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की शक्ति
  5. कछैरा – विशेष प्रकार का वस्त्र; नैतिकता और संयम का प्रतीक

ये सभी प्रतीक केवल बाहरी चिन्ह नहीं हैं, बल्कि वे आंतरिक आत्मबल और धार्मिक अनुशासन का प्रतीक हैं।


8. समानता और जातिवाद का विरोध

सिक्ख धर्म के मूल प्रत्ययों में सामाजिक समानता को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। गुरु नानक देव जी और उनके बाद के गुरुओं ने जातिवाद, ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष भेदभाव और धार्मिक कट्टरता का दृढ़ता से विरोध किया।

गुरु गोबिंद सिंह जी ने जब खालसा पंथ की स्थापना की, तो ‘सिंह’ और ‘कौर’ जैसे समान उपनाम दिए, जिससे जातिगत भेद मिटाया जा सके। गुरुद्वारे में सबको एक समान बिठाना, स्त्रियों को पूजा और सेवा का समान अधिकार देना — यह सब उस समानतावादी दृष्टिकोण का प्रमाण है।


9. न्याय और पराक्रम का संतुलन

सिक्ख धर्म एक ऐसा मार्ग है जहाँ करुणा और वीरता दोनों का संतुलन है। गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु तेग बहादुर और गुरु गोबिंद सिंह जी तक, गुरुओं ने जहाँ भक्ति, सेवा और समर्पण का मार्ग दिखाया, वहीं अन्याय के विरुद्ध शस्त्र उठाने का साहस भी दिया।

संत-सिपाही” (Saint-Soldier) की धारणा सिक्ख धर्म का एक मौलिक विचार है, जिसमें भक्त को इतना साहसी बनना चाहिए कि वह धर्म और न्याय की रक्षा के लिए जीवन तक न्योछावर कर सके।


10. गुरु ग्रंथ साहिब का केंद्रीय स्थान

गुरु ग्रंथ साहिब न केवल धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि यह सिखों का जीवंत गुरु भी है। इसमें केवल सिक्ख गुरुओं की वाणी ही नहीं, बल्कि कबीर, नामदेव, रविदास जैसे संतों की वाणी भी संकलित है, जो इसकी समावेशी सोच को दर्शाता है।

इस ग्रंथ को पूर्ण श्रद्धा, भक्ति और सम्मान के साथ पढ़ा, सुना और समझा जाता है। इसका हर शब्द मार्गदर्शन करता है और आध्यात्मिक ऊँचाइयों की ओर प्रेरित करता है।


इस प्रकार सिक्ख धर्म के मूल प्रत्यय जीवन के हर पहलू को प्रभावित करते हैं — व्यक्तिगत आचरण, सामाजिक समरसता, आध्यात्मिक साधना और न्यायपूर्ण साहसिकता। ये प्रत्यय एक आदर्श समाज और संतुलित जीवन की परिकल्पना को साकार करने का माध्यम हैं।

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