ब्रह्मराक्षस कविता की समीक्षा |


ब्रह्मराक्षस कविता की समीक्षा; मुक्तिबोध “ब्रह्मराक्षस” हिंदी साहित्य की उन महत्वपूर्ण आधुनिक कविताओं में गिनी जाती है, जिन्होंने सहज भाषा और प्रतीकात्मक शैली के ज़रिए गहरे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सवाल उठाए। यह कविता जितनी सरल दिखाई देती है, उतनी ही परतदार है। इस कविता में ब्रह्मराक्षस का पात्र सिर्फ एक पौराणिक रूप नहीं है बल्कि मनुष्य के भीतर छिपी जटिलताओं, असुरक्षाओं और बौद्धिक अहं की भी अभिव्यक्ति है। यही वजह है कि ब्रह्मराक्षस कविता समीक्षा आज भी साहित्य विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है।

कविता की मूल संरचना छोटी दिखती है, लेकिन उसके भीतर कई स्तरों पर अर्थ छिपे हैं। ब्रह्मराक्षस का चरित्र कवि के लिए एक प्रतीक है। वह शक्ति का नहीं, बल्कि अकेलेपन, असंतोष और विद्रोह का प्रतिनिधि बन कर उभरता है। यह कविता बताती है कि ज्ञान और अधिकार जब संवेदना से दूर हो जाते हैं, तब वे स्वयं अपने भीतर की आग से जलने लगते हैं। समाज उन्हें सम्मान तो देता है, लेकिन उनके भीतर जमा बेचैनी को कोई नहीं समझ पाता।

1. कविता का केंद्रीय प्रतीक: ब्रह्मराक्षस

कविता का सबसे मजबूत पक्ष उसका शीर्षक ही है। “ब्रह्मराक्षस” दो शब्दों का मेल है: ब्रह्मा और राक्षस। यानी एक ऐसा पात्र जो विद्वान भी है और उग्र भी। यह संयोजन एक विरोधाभास बनाता है। यही विरोधाभास कविता की आत्मा है।

कवि मुक्तिबोध इस पात्र का उपयोग करके यह दिखाते हैं कि ज्ञान भी कभी-कभी मनुष्य को असहज और अकेला बना देता है। ब्रह्मराक्षस किसी महाशक्तिशाली अस्तित्व की तरह नहीं जीता, बल्कि वह एक ऐसे व्यक्ति की तरह प्रस्तुत होता है जिसकी पीड़ा कोई नहीं समझ पाता। उसकी विद्वता ही उसके और संसार के बीच दूरी पैदा कर देती है। यहाँ ब्रह्मराक्षस एक प्रतीक बन जाता है उन लोगों का, जो समाज से कट गए हैं, लेकिन अपने भीतर कोई अंधकार भी पोषित करते रहते हैं।

2. आधुनिक समाज की परिस्थिति और कविता का संबंध

इस हिंदी कविता विश्लेषण को समझने के लिए यह देखना जरूरी है कि मुक्तिबोध ने इस कविता को किस सामाजिक संदर्भ में लिखा था। आधुनिकता के दौर में शिक्षा, ज्ञान, पुस्तकों और बौद्धिक विमर्श का दायरा बढ़ रहा था। लेकिन यही विकास कई लोगों को भीतर से तोड़ भी रहा था। समाज बदल रहा था, मूल्य बदल रहे थे और ऐसे में संवेदनशील लोग अक्सर अपने ही ज्ञान और विचारों में उलझ कर अकेले पड़ जाते थे।

ब्रह्मराक्षस इसी बदलते सामाजिक ढांचे का रूपक है। वह पुस्तकालय में बैठा रहता है, शब्दों में उलझा है, लेकिन उसकी पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं। यह बात आज की डिजिटल दुनिया में भी उतनी ही सटीक लगती है। ज्ञान बढ़ा है, जानकारी बढ़ी है, लेकिन मनुष्यों के बीच दूरी भी बढ़ी है। इस दिशा से देखें तो कविता आज के समय की भी सच्चाई कहती है।

3. भाषा और शैली की विशेषताएँ

“ब्रह्मराक्षस” की भाषा सरल है, लेकिन उसका लयात्मक प्रवाह पाठक को लगातार जोड़ कर रखता है। मुक्तिबोध की कविताएँ सामान्य शब्दों के भीतर से असाधारण अर्थ निकालने में सक्षम रही हैं। इस कविता में भी उन्होंने भारी-भरकम शब्दों से बचते हुए अपनी बात को सहज रूप में रखा है।

कविता की शैली प्रतीकात्मक है। कवि सीधे-सीधे कोई उपदेश नहीं देता, बल्कि दृश्य और पात्रों के ज़रिए संकेत करता चलता है। ब्रह्मराक्षस का वर्णन करते समय भी कवि उसकी भयानकता नहीं, बल्कि उसकी संवेदनात्मक विडंबना को सामने रखते हैं। यही वजह है कि यह कविता पाठक के भीतर विचारों की एक धीमी लेकिन गहरी प्रक्रिया शुरू कर देती है।

4. ब्रह्मराक्षस का बौद्धिक अकेलापन

कविता की एक महत्वपूर्ण व्याख्या यह है कि ब्रह्मराक्षस मूल रूप से एक विद्वान व्यक्ति है, जिसे अपनी विद्वता के कारण शाप मिला। यह शाप केवल पौराणिक अर्थों में नहीं, बल्कि आधुनिक बौद्धिक मनुष्य की स्थिति के रूप में भी पढ़ा जा सकता है। बहुत अधिक ज्ञान कभी-कभी मनुष्य को व्यवहारिक जीवन से अलग कर देता है। ऐसे लोग समाज के लिए महत्वपूर्ण होते हुए भी अक्सर गलत समझे जाते हैं।

कविता में ब्रह्मराक्षस की यही विडंबना उभर कर आती है। वह ज्ञान के भार से दबा है। उसके भीतर का राक्षस अहंकार या दर्प का राक्षस नहीं, बल्कि असफलता और आत्मद्वंद्व का राक्षस है। यही कारण है कि वह अस्तित्व के संकट से गुजरता हुआ दिखता है।

5. मानवीय संवेदना की कमी का प्रश्न

कवि इस कविता में यह सवाल भी उठाते हैं कि क्या समाज किसी संवेदनशील या बौद्धिक व्यक्ति को सच में स्वीकार कर पाता है। ब्रह्मराक्षस जैसे पात्र इसलिए पैदा होते हैं क्योंकि समाज उन्हें समझने से पहले ही एक तयशुदा रूप दे देता है। कोई उन्हें खतरनाक कह देता है, कोई असामान्य। लेकिन वास्तव में वे भीतर से टूटे, डरे और अकेले होते हैं।

यह समीक्षा हमें याद दिलाती है कि समाज व्यक्तियों को जितना बाहर से देखता है, उतना भीतर से समझने की कोशिश नहीं करता। ब्रह्मराक्षस इस असंवेदनशीलता का परिणाम है।

6. कविता में पुस्तकालय का प्रतीक

पुस्तकालय कविता में महज एक जगह नहीं, बल्कि ब्रह्मराक्षस की दुनिया है। यह वह स्थान है जहाँ उसे लगता है कि वह अपने ज्ञान के साथ सुरक्षित है। लेकिन यही जगह धीरे-धीरे उसके लिए कैदखाना बन जाती है। पुस्तकों के बीच बैठा यह पात्र ज्ञान में डूबा रहकर भी जीवन से दूर होता चला जाता है।

यह हिस्सा कविता को बहुत प्रभावी बनाता है। यह बताता है कि सिर्फ ज्ञान ही पर्याप्त नहीं। जीवन को समझने के लिए रिश्ते, संवाद, अनुभव और भावनाएँ भी जरूरी हैं।

7. अस्तित्ववादी दृष्टिकोण

कविता में अस्तित्ववाद की झलकें भी दिखाई देती हैं। ब्रह्मराक्षस अपने अस्तित्व की तलाश में है, लेकिन उसे अपने भीतर ही अंधकार मिलता है। वह पहचान चाहता है, लेकिन समाज उसे पहचानने से पहले ही राक्षस की श्रेणी में डाल देता है। उसकी पीड़ा यह है कि वह न पूरी तरह मनुष्य है, न राक्षस। इस दोहरी स्थिति से कविता में एक गहरी दार्शनिक परत जुड़ती है।

8. आज के संदर्भ में कविता की प्रासंगिकता

आज के समय में जब लोग सोशल मीडिया, तकनीक और जानकारी के बड़े भंडार के बीच जी रहे हैं, ब्रह्मराक्षस की स्थिति और ज्यादा वास्तविक लगने लगती है। आज हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में ब्रह्मराक्षस बनता जा रहा है। ज्ञान है, जानकारी है, लेकिन आत्मीयता कम होती जा रही है। लोग समझे जाने की बजाय ज्यादा गलत समझे जाते हैं। इसी वजह से यह कविता समय के साथ और भी समकालीन महसूस होती है।

9. कविता का मनोवैज्ञानिक पक्ष

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो ब्रह्मराक्षस एक ऐसे व्यक्ति का प्रतीक है जो अपनी भावनाओं को दबाता रहा और अंततः भीतर ही भीतर एक दानव का रूप ले लिया। उसके भीतर की उलझनें और तनाव उसके व्यक्तित्व को बिखेर देते हैं। कविता यह भी दिखाती है कि जब मनुष्य अपनी भावनाओं को जगह नहीं देता, तो वे किसी न किसी रूप में उसे नुकसान पहुँचाती हैं।

ब्रह्मराक्षस कविता की समीक्षा


ब्रह्मराक्षस कविता की समीक्षा

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