इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 10 की संस्कृत के अध्याय 3 अलसकथा ( Alasakatha Path Sanskrit Class 10) के अर्थ को आसान भाषा में समझेंगे। लाइन बाई लाइन सरल भाषा में अर्थ और साथ ही सारे पश्नो के उत्तर को पढ़ेंगे। (अलसकथा का प्रश्न उत्तर)
अलसकथा का प्रश्न उत्तर
पाठ परिचय
यह पाठ विद्यापति द्वारा रचित पुरुषपरीक्षा नामक कथाग्रन्थ से संकलित एक उपदेशात्मक लघु कथा है। विद्यापति ने मैथिली, अवहट्ट तथा संस्कृत तीनों भाषाओं में ग्रन्थ-रचना की थी। पुरुषपरीक्षा में धर्म, अर्थ, काम इत्यादि विषयों से सम्बद्ध अनेक मनोरंजक कथाएँ दी गयी हैं। अलसकथा में आलस्य के निवारण की प्रेरणा दी गयी है। इस पाठ में संसार की विचित्र गतिविधि का भी परिचय मिलता है। (अलसकथा का प्रश्न उत्तर )
भूमिका
अयं पाठः विद्यापतिकृतस्य कथाग्रन्थस्य पुरुषपरीक्षेतिनामकस्य अंशविशेषो वर्तते। पुरुषपरीक्षा सरलसंस्कृतभाषायां कथारूपेण विभिन्नानां मानवगुणानां महत्त्वं वर्णयति, दोषाणां च निराकरणाय शिक्षां ददाति। विद्यापतिः लोकप्रियः मैथिलीकविः आसीत्। अपि च बहूनां संस्कृतग्रन्थानां निर्मातापि विद्यापतिरासीत् इति तस्य विशिष्टता संस्कृतविषयेऽपि प्रभूता अस्ति। प्रस्तुते पाठे आलस्यनामकस्य दोषस्य निरूपणे व्यंगयात्मिका कथा प्रस्तुता विद्यते। नीतिकाराः आलस्यं रिपुरूपं मन्यन्ते।
भूमिका का अर्थ
यह पाठ विद्यापति द्वारा रचित कथा ग्रन्थ पुरूष परीक्षा नामक का अंश विशेष है। पुरुषपरीक्षा सरल संस्कृत भाषा में कथा के रूप में विभिन्न मानवीय गुणों के महत्व का वर्णन करती है और दोषों को दूर करने की शिक्षा देती है। विद्यापति लोकप्रिय मैथली कवि थे और भी अनेक संस्कृत ग्रंथों के निर्माता भी विद्यापति थे। ऐसी उनकी विशेषता संस्कृत विषय में भी बहुत है। प्रस्तुत पाठ में आलस्य नामक दोष का निरूपण करते हुए व्यंग्यात्मक कथा प्रस्तुत किया गया है। नीतिकार आलस्य को शत्रु मानते हैं।
पाठ
आसीत् मिथिलायां वीरेश्वरो नाम मन्त्री। स च स्वभावाद् दानशीलःकारुणिकश्च सर्वेभ्यो दुर्गतेभ्योऽनाथेभ्यश्च प्रत्यहमिच्छाभोजनं दापयति ।तन्मध्येऽलसेभ्योऽप्यन्नवस्त्रे दापयति। यतः –
अर्थ
मिथिला मे वीरेश्वर नामक एक मंत्री था। वह स्वभाव से दानशील (दानी) और कारुणिक था। वह पीड़ितों और अनाथों को प्रतिदिन इच्छा भोजन देता था। इसी बीच वह आलसीयों को भी अन्न-वस्त्र देता था। क्योंकि-
श्लोक
निर्गतीनां च सर्वेषामलसः प्रथमो मतः। किंचिन्न क्षमते कर्तुं जाठरेणाऽपि वह्निना ।।
अर्थ
दुखी मनुष्यों में पहला स्थान आलसियों का होता है। इनका मुख्य सिद्धांत भूखे रहना अच्छा है लेकिन कोई काम नहीं करना है। अर्थात् आलसी लोग पेट की आग सह लेते है किंतु परिश्रम करना नहीं चाहते हैं।
पाठ
ततोऽलसपुरुषाणां तत्रेष्टलाभं श्रुत्वा बहवस्तुन्दपरिमृजास्तत्र वर्त्तलिब भूवुः यतः –
अर्थ
इसके बाद आलसियों का वहाँ मिल रहा लाभ सुनकर बहुत से तोंद बढ़ाए हुए लोग जमा हो गये। क्योंकि-
श्लोक
स्थितिः सौकर्यमूला हि सर्वेषामपि संहते। सजातीनां सुखं दृष्ट्वा के न धावन्ति जन्तवः ।।
अर्थ
सुविधाजनक स्थिति को देखकर सभी लोग उसे प्राप्त करना चाहते हैं। कौन ऐसा जीव है जो अपने जाति का सुख देखकर नहीं दौड़ता हो। अर्थात् सभी कोई अपने जाति का सुख देखकर आकृष्ट होते हैं।
पाठ
पश्चादलसानां सुखं दृष्ट्वा धूर्ता अपि कृत्रिममालस्यं दर्शयित्वा भोज्यं गृह्णन्ति। तदनन्तरमलसशालायां बहुद्रव्यव्ययं दृष्ट्वा तन्नियोगिपुरुषैः परामृष्टम् – यदक्षमबुद्धया करुणया केवलमलसेभ्यः स्वामी वस्तूनि दापयति, कपटेनाऽनलसा अपि गृह्णन्ति इत्यस्माकं प्रमादः।
अर्थ
इससे बाद आलसियों का सुख देखकर धूर्त भी बनावटी आलस्य दिखाकर भोजन ग्रहण करने लगे। इस बीच अलसशाला में अधिक खर्च देखकर राज पुरूषों के द्वारा विचार किया गया कि अक्षम बुद्धि और करुणा के कारण, केवल आलसियों को स्वामी वस्तु देते है। कपट से जो आलसी नही है वह भी ग्रहण कर रहे है। यह हमार आलस्य हैं।
पाठ
यदि भवति तदालसपुरुषाणां परीक्षां कुर्मः इति परामृश्य प्रसुप्तेषु अलसशालायां तन्नियोगिपुरुषाः वह्नि दापयित्वा निरूपयामासुः। ततो गृहलग्नं प्रवृद्धमग्निं दृष्ट्वा धूर्ताः सर्वे पलायिताः। पश्चादीषदलसा अपि पलाचिताः।
अर्थ
यदि ऐसा होता है तब आलसी पुरुषों की परीक्षा करते हैं ऐसा परामर्श करके सोए हुए अवस्था में अलसशाला में उन राज पुरुषो ने आग लगाकर बैठ गए। तब घर में लगे बढ़ते आग को देखकर सभी धूर्त भाग गए, उसके बाद थोड़े आलसी भी भाग गए।
पाठ
चत्वारः पुरुषास्तत्रैव सुप्ताः परस्परमालपन्ति। एकेन वस्त्रावृतमुखेनोक्तम्- अहो कथमयं कोलाहलः ? द्वितीयेनोक्तम्- तर्व्यते यदस्मिन् गृहे अग्निर्लग्नोऽस्ति । तृतीयेनोक्तम्- कोऽपि तथा धार्मिको नास्ति य इदानीं जलाद्वैर्वासोभिः कटैवांस्मान् प्रावृणोति ? चवुर्थेनोक्तम्- अये वाचालाः। कति वचनानि वक्तुं शक्नुथ ? तूष्णीं कथं न तिष्ठथ ?
अर्थ
चार पुरुष वहीं सोए हुए आपस में बातें कर रहे है। पहला वस्त्र के चेहरे को ढकते हुए बोला – ” अरे! यह कैसा कोलाहल (शोरगुल) है?” दूसरा बोला – ” लगता है इस घर में आग लगी है।” तीसरा बोला ” कोई भी ऐसा धार्मिक नहीं है जो, जो इस समय जल से भीगा हुआ कंबल या चटाई हमें ओढ़ा दे?” चौथा बोला – ” अरे वाचालों! कितने वचन बोलते हो ? चुप क्यों नही रहते हो?”
पाठ
ततश्चतुर्णामपि तेषामेवं परस्परालापं श्रुत्वा वह्निं च प्रवृद्धमेषामुपरि पतिष्यन्तं दृष्ट्वा नियोगिपुरुषैर्वधभयेन चत्वारोऽप्यलसाः केशेष्वावाकृष्य गृहीत्वा गृहाद् बहिः कृताः। पश्चात्तानालोक्य तैर्नियोगिभिः पठितम्-
अर्थ
तब चारों आलसियों को भी इस प्रकार परस्पर बातों को सुनकर और बढ़ते आग को उनके ऊपर गिरते देखकर राज पुरुषों ने मृत्यु के भय से उन चारों आलसियों को भी केशों को पकड़कर घर से बाहर किया। इसके बाद इनकों देखकर उन राज पुरुषों द्वारा पढ़ा गया –
श्लोक
पतिरेव गतिः स्त्रीणां बालानां जननी गतिः। नालसानां गतिः काचिल्लोके कारुणिकं बिना ।।
अर्थ
स्त्रियों की गति पति है, बालकों की गति माता है, और इस संसार में आलसियों के लिए कारूणिकों के बिना और कोई गति नहीं है।
पाठ
पश्चातेषु चतुर्व्वलसेषु ततोऽप्यधिकतरं वस्तु मन्त्री दापयामास ।
अर्थ
इसके बाद उन चारों आलसियों को भी अधिकतर वस्तुएं मंत्री के द्वारा दी गई।