जय हिन्द। इस पोस्ट में बिहार बोर्ड क्लास 10 हिन्दी किताब गोधूली भाग – 2 के पद्य खण्ड के पाठ चार ‘स्वदेशी’ के व्याख्या को पढ़ेंगे। इस पाठ के रचनाकार बदरीनारायण चौधरी ‘ प्रेमघन ‘ जी है । प्रस्तुत पाठ में नवजागरण का स्वर मुखरित है। इस काव्य की विषय-वस्तु और काव्य वैभव कविता के स्वदेशी भाव को स्पष्ट किया गया है । कवि की चिंता आज के परिवेश में भी प्रासंगिक है, की आज कल को कैसे विदेशी बनाने पर तुले हुए है। |(Bihar Board Class 10 Hindi Guru Nanak) (Bihar Board Class 10th Hindi Solution)
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4. स्वदेशी
कवि परिचय
- कवि का नाम – बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’
- जन्म – 1855
- जन्म स्थान – मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)
- मृत्यु – 1922 ई०
- आदर्श – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- युग – भारतेन्दु युग
- विरोध – साम्राज्यवाद और सामंतवाद
- रचनाएँ — भारत सौभाग्य , प्रयाग रामागमन , जीर्ण जनपद , प्रेमघन सर्वस्व ,
- प्रसिद्ध नाटक – भारत सौभाग्य और प्रयाग रामागमन
- ‘जीर्ण जनपद‘ नामक नाटक में ग्रामीण जीवन का यर्थाथवादी चित्रण किया है।
- पत्रिकाओं का संपादन – (i) आनन्द कादंबिनी ( मासिक पत्रिका)। (ii) नागरी नीरद ( साप्ताहिक पत्रिका)।
- भाषा – ब्रजभाषा , अवधि , खड़ी बोली
- यह काव्य ‘प्रेमधन सर्वस्व’ से लिया गया है।
- 1874 ईo में इन्होंने ‘रसिक’ समाज की स्थापना मिर्जापुर में की।
- साहित्य सम्मेलन कलकत्ता अधिवेशन के सभापति थे
- ये नाटक निबंध और काव्य की रचना करते थे।
- भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किए।
- निहायत कलात्मक और अलंकृत गद्य लिखते थे।
- इनके काव्य में लोकोन्मुखता और यथार्थ परायजता की आग्रह है।
कविता परिचय
प्रस्तुत पाठ ‘स्वदेशी‘ शीर्षक कविता प्रेमघन द्वारा लिखित रचनाएँ ‘प्रेमघन सर्वस्व‘ से संकलित है। इन दोहों में नवजागरण का स्वर मुखरित है। दोहों की विषय-वस्तु और काव्य वैभव कविता के स्वदेशी भाव को स्पष्ट करते हैं। कवि की चिंता आज के परिवेश में भी प्रासंगिक है।
सबै बिदेसी वस्तु नर, गति रति रीत लखात।
भारतीयता कछु न अब भारत म दरसात।।
अर्थ – कवि प्रेमघन कहते हैं कि पराधीनता के कारण सभी जगह विदेशी वस्तुएँ ही दिखाई पड़ती हैं। लोगों के चाल-चलन तथा रीति-रिवाज बदल गए हैं। अब भारत में भारतीयता नहीं दिखाई पड़ रही है। दुःख है कि लोगों में भारतीयता की भावना मर गई है। देश-प्रेम की भावना देश में कहीं भी दिखाई नहीं देती।
मनुज भारती देखि कोउ, सकत नहीं पहिचान।
मुसल्मान, हिंदू किधौं, कै हैं ये क्रिस्तान।।
पढ़ि विद्या परदेश की, बुद्धि विदेशी पाय।
चाल-चलन परदेश की, गई इन्हैं अति भाय।।
अर्थ- कवि कहता है कि अंग्रजी शासनकाल में हिंदु-मुसलमान दोनों के रहन-सहन, खान-पान, विद्या-व्यवसाय, चाल-चलन तथा आचरण बदल गए हैं। विदेशी भाषा पढ़ने के कारण अपनी संस्कृति, भाषा सबका त्याग कर विदेशी चाल-चलन अपना लिए हैं।
ठटे विदेशी ठाट सब, बन्यो देश विदेस।
सपनेहूँ जिनमें न कहुँ, भारतीयता लेस।।
बोलि सकत हिंदी नहीं, अब मिलि हिंदू लोग।
अंगरेजी भाखन करत, अंग्रेजी उपभोग।।
अर्थ – कवि ‘प्रेमघन‘ देश की दुर्दशा देखकर कहते हैं कि अंग्रेजी शासन के कारण भारतीयों का संस्कार विदेशी हो गया है। स्वदेशी वस्तुएँ नष्ट कर दी गई हैं। विदेशी वस्तुओं तथा भाषा के प्रचार के कारण कहीं भी भारतीयता के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। सभी अपनी सुख-सुविधा के प्राप्ति के लिए अंग्रजी भाषा का व्यवहार करते हैं।
अंगरेजी बाहन, बसन, वेष रीति औ नीति।
अंगरेजी रुचि, गृह, सकल, बस्तु देस विपरित।।
हिन्दुस्तानी नाम सुनि, अब ये सकुचि लजात।
भारतीय सब वस्तु ही, सों ये हाय घिनात।।
अर्थ – कवि ‘प्रेमघन‘ जी कहते हैं कि अंग्रेजी शासनकाल में भारतीयों की मनोदशा इतनी दूषित हो गई है कि वे भारतीय वस्तुओं का उपयोग करना छोड़ विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने लगे हैं। इनका हर कुछ विदेशी रंग में रंग चूका है। वे अपने को हिंदुस्तानी कहने में संकुचित महसुस करते हैं तथा स्वदेशी वस्तु देखकर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं।
देस नगर बानक बनो, सब अंगरेजी चाल।
हाटन मैं देखहु भरा, बसे अंगरेजी माल।।
जिनसों सम्हल सकत नहिं तनकी, धोती ढीली-ढीली।
देस प्रंबध करिहिंगे वे यह, कैसी खाम खयाली।।
अर्थ – कवि कहते हैं कि भारतीय हाट-बाजारों में अंग्रेजी भर दिए गये हैं। भारतीय इन वस्तुओं के व्यवसायी बन गए। देश में निर्मित वस्तुओं का लोप हो गया है। देश की कमान वैसे लोगों के हाथ में है, जों स्वयं ढुलमुल विचार के हैं, जिन्हें स्वयं पर भरोसा नहीं है। जो अपनी तनिक भी धोती ढीली – ढाली नहीं संभाल सकते , उनसे देश संभालेगा ये हमारा कैसा ख्याल है?
दास-वृति की चाह चहूँ दिसि चारहु बरन बढ़ाली।
करत खुशामद झूठ प्रशंसा मानहुँ बने डफाली।।
अर्थ – कवि आश्चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि ऐसे खोटे विचार वालों से देश की सुरक्षा का आशा करना कितना हास्यपद है। क्योंकि सभी जाति के लोग अपनी आजीविका के लिए अंग्रेजों की खुशामद और झूठी प्रशंसा का ढोल पीटने लगे हैं।
पाठ्य पुस्तक के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. कविता के शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – स्वदेशी कविता में प्रेमघन जी ने देश में बदले हुए विदेशी सभ्यता संस्कृति के प्रभाव पर प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि अब भारत में सब कुछ विदेशी नजर आता है। स्वदेशी रीति रिवाज से लोग दूर हो गए हैं। लोग अपनी पहचान खो कर विदेशी रंग में रंगते के जा रहे हैं। लोगों को अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति प्रेरित करने के लिए इस कविता का शीर्षक स्वदेशी दिया गया है जो अपने आप में परिपूर्ण और सार्थक है।
प्रश्न 2. कवि को भारत में भारतीयता क्यों नहीं दिखाई पड़ती ?
उत्तर – कवि प्रेमधन के अनुसार भारतीय लोग पूरी तरह से विदेशी रंग में रंग गए हैं। खानपान हो या बोलचाल सभी में विदेशी तौर-तरीके ही नजर आ रहे हैं। चारों ओर पश्चिमी सभ्यता का बोलबाला है। हिंदू हो या मुसलमान , शहरी हो या ग्रामीण , व्यापार हो या राजनीति हर जगह अंग्रेजी चाल – ढाल दिखाई दे रहे हैं। इन्हीं सब कारणों से कवि को भारत में भारतीय आता दिखाई नहीं देती।
प्रश्न 3. कवि समाज के किस वर्ग की आलोचना करता है और क्यों ?
उत्तर – कवि समाज के सुविधा भोगी वर्ग की आलोचना करता है। ऐसा वर्ग अपने सुविधा के लिए तथा अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने अस्तित्व अपनी संस्कृति अपने देश और अपने जातीय स्वाभिमान की परवाह नहीं करता। यह वर्ग केवल अपना स्वार्थ देखता है। इसके लिए अपने देश के स्वाभिमान और आजादी का कोई अर्थ नहीं होता।
प्रश्न 4. कवि नगर, बाजार और अर्थव्यवस्था पर क्या टिप्पणी करता है ?
उत्तर – कवि नगर , बाजार और अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तन से बहुत दुखी है। वह कहता है कि भारत के नगर अंग्रेजी रंग में रंगे हुए हैं। इन नगरों का देसी स्वरूप समाप्त हो गया है। देश का बाजार विदेशी वस्तुओं से भरा हुआ है जिन्हें देखकर भारत की अर्थव्यवस्था का अनुमान लगाया जा सकता है। भारत के लघु उद्योग और हस्तकला उद्योग पूर्ण रूप से समाप्त हो गया है। मजदूर और कारीगर बेरोजगारी का शिकार हो गए हैं। भारत का कच्चा माल विदेश जाता है और वहाँ से नए रूप में आकर भारत के बाजारों पर छा जाता है। इस प्रकार की नीति से भारतीय अर्थव्यवस्था जर्जर हो गई है।
प्रश्न 5. नेताओं के बारे में कवि की क्या राय है?
उत्तर – नेताओं के बारे में कवि व्यंग्यात्मक शैली में कहता है कि जो अपने ढीली – ढाली धोती को नहीं संभाल सकते। भला उनसे देश कैसे संभाल लेगा? यदि हम ऐसे नेताओं से देश की विकास की बात सोचते हैं तो यह हम लोगों की नासमझी है। जो आपने कि नहीं संभाल सकते। वे देश को कैसे संभाल लेंगे?
प्रश्न 6. कवि ने ‘डफाली’ किसे कहा है और क्यों ?
उत्तर – कवि कहता है कि चारों वर्णों में अंग्रेजी के प्रति दास वृत्ति का अतिशय विकास हुआ है। सभी अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिए अंग्रेजों की झूठी प्रशंसा और खुशामद में लगे हुए हैं। कवि ने ऐसे लोगों को ही ‘डफाली’ कहां है? क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी भारतीयता और अस्मिता को गिरवी रखने वाले ये लोग डफाली की तरह अंग्रेजों का झूठा यशोगान करते हैं।
प्रश्न 7. व्याख्या करें –
(क) मनुज भारती देखि कोठ, सकत नहीं पहिचान ।
उत्तर – प्रस्तुत व्याख्या पंक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक गोधूलि भाग 2 में संकलित स्वदेशी शीर्षक कविता से ली गई है, जिसके रचनाकार बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ है। इसमें कवि ने देश प्रेम के भाव को जगाने का प्रयास किया है।
कवि प्रेमधन कहते हैं कि आज भारतीय लोगों में भारतीयता नहीं दिखाई देती। सभी अंग्रेजी रंग में रंग गए हैं। पहनावे , भाषा , खानपान सभी विदेशी हो गए हैं। चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान सभी अंग्रेजी की अहमियत देने लगे हैं। यह विदेशी संस्कृति अपना कर गौरवान्वित हो रहे हैं।
(ख) अंग्रेजी रुचि, गृह, सकल बस्तु देस विपरीत ।
उत्तर – प्रस्तुत व्याख्या पंक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक गोधूलि भाग 2 में संकलित स्वदेशी कविता शीर्षक कविता से ली गई है, जिसके रचनाकार बद्रीनारायण चौधरी ’प्रेमघन’ है।
कहते हैं कि भारत के लोगों से स्वदेशी भावना लुप्त हो गई है। विदेशी भाषा , रीति रिवाज से इतना लगाव हो गया है कि भारतीय लोगों का रुझान स्वदेशी के प्रति बिल्कुल नहीं है। चारों तरफ अंग्रेजी का बोलबाला है।
प्रश्न 8. आपके मत से स्वदेशी की भावना किस दोहे में सबसे अधिक प्रभावशाली है ? स्पष्ट करें ।
मेरे मत से स्वदेशी की भावना निम्नलिखित दोहा में सबसे अधिक प्रभावशाली है—
हिन्दुस्तानी नाम सुनि, अब ये सकुचि लजात।
भारतीय सब वस्तु ही, सों ये हाय घिनात।।
प्रश्न 9. ‘स्वदेशी’ शीर्षक कविता का भावार्थ अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर – ‘स्वदेशी’ शीर्षक कविता में कवि प्रेमघन जी ने भारत में बढ़ रही विदेशी संस्कृति के प्रभाव पर अपना दुख प्रकट किया है। कवि कहता है कि अंग्रेजी पढ़ कर भारतीयों की बुद्धि भी विदेशी हो गई है। यह लोग अपने देश को ही विदेश बनाने पर तुले हुए हैं। स्वयं को भारतीय का लाने में यह लोग शर्म महसूस करते हैं। यही लोग दास – वृति अपनाकर अंग्रेजों की खुशामद और झूठी प्रशंसा में लगे हुए हैं।