बिहारी की काव्य-कला पर संक्षिप्त टिप्पणी

बिहारी की काव्य-कला


बिहारीलाल हिंदी साहित्य के रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक माने जाते हैं। उनका जन्म 17वीं शताब्दी में ग्वालियर के पास बसुआ नामक स्थान पर हुआ था। उनकी प्रमुख कृति “बिहारी सतसई” है, जिसमें 713 दोहे संकलित हैं। ये दोहे श्रृंगार, नीति, और भक्ति जैसे विषयों पर आधारित हैं। बिहारी की काव्य-कला में भाव, भाषा और शिल्प का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है।


काव्य-कला की विशेषताएँ:

  1. लाक्षणिकता और सूक्ष्मता:
    बिहारी की काव्य-कला का सबसे बड़ा गुण उनकी अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता है। उन्होंने अपने दोहों में कम शब्दों में गहरी भावनाओं और विचारों को व्यक्त किया। उनके दोहे पाठक या श्रोता को गहराई से सोचने पर मजबूर करते हैं।
    उदाहरण:
    “सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
    देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर।।”

    इस दोहे में उन्होंने अपनी काव्य-कला का वर्णन करते हुए बताया है कि उनके दोहे छोटे होते हैं, लेकिन उनका प्रभाव गहरा होता है।
  2. श्रृंगार रस की प्रधानता:
    बिहारी के काव्य में श्रृंगार रस का विशेष स्थान है। उन्होंने नायक-नायिका के प्रेम, वियोग, और संयोग के विभिन्न पक्षों को अत्यंत सुंदरता से प्रस्तुत किया है। उनके काव्य में नायिका का सौंदर्य, प्रेम की कोमलता, और भावनाओं की तीव्रता सजीव हो उठती है।
    उदाहरण:
    नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
    अली कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल।।”

    इस दोहे में उन्होंने कली के माध्यम से प्रेम की आरंभिक अवस्था को दर्शाया है।
  3. अलंकारों का सुंदर प्रयोग:
    बिहारी की काव्य-कला अलंकारों के उत्कृष्ट प्रयोग के लिए प्रसिद्ध है। उन्होंने उपमा, रूपक, अनुप्रास, और यमक जैसे अलंकारों का अत्यंत कुशलता से उपयोग किया। उनके अलंकार केवल बाहरी सौंदर्य नहीं जोड़ते, बल्कि भावों को और प्रभावशाली बनाते हैं।
  4. नीतिपरक विचार:
    बिहारी के काव्य में केवल श्रृंगार रस ही नहीं, बल्कि नीति और ज्ञान का भी समावेश है। उनके नीतिपरक दोहे जीवन को दिशा प्रदान करते हैं।
    उदाहरण:
    जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
    चंदन विष व्याप्तै नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।”

    इस दोहे में बिहारी ने अच्छे स्वभाव वाले लोगों की प्रशंसा की है, जो बुरी संगति में भी अपने चरित्र को नहीं खोते।
  5. भाषा की सजीवता:
    बिहारी ने ब्रज भाषा का प्रयोग किया, जो उनकी अभिव्यक्ति को सरल, सरस और प्रवाहपूर्ण बनाती है। उनकी भाषा में भावों की गहराई और दृश्यात्मकता का अद्भुत संयोजन है।

निष्कर्ष:
बिहारी की काव्य-कला में भाव, शिल्प, और अलंकारों का उत्कृष्ट समन्वय है। उनकी रचनाएँ न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि जीवन के विविध पक्षों को भी गहराई से स्पर्श करती हैं। बिहारी की सूक्ष्म दृष्टि, अलंकारिक भाषा, और भावपूर्ण अभिव्यक्ति उन्हें हिंदी साहित्य में अमर बनाती है। उनके दोहे आज भी साहित्य प्रेमियों को प्रेरित करते हैं और रीतिकालीन काव्य की उत्कृष्टता के प्रमाण हैं।

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