नाखून क्यों बढ़ते हैं ( ललित निबंध )|Chapter 4 |Nakhun Kyon Badhate Hain |Lalit Nibandh | हजारी प्रसाद द्विवेदी Hajari Prasad Dwivedi

जय हिन्द। इस पोस्‍ट में Nakhun Kyon Badhate Hain गोधूली भाग – 2 के गद्य खण्ड के पाठ 3 ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ के सारांश को पढ़ेंगे। इस निबंध के रचनाकार हजारी प्रसाद द्विवेदी है । इस पाठ में द्विवेदी जी ने मनुष्य के मनुष्यता का साक्षात्कार कराया है|(Bihar Board Class 10 Hindi हजारी प्रसाद द्विवेदी) (Bihar Board Class 10 Hindi नाखून क्यों बढ़ते हैं )(Bihar Board Class 10th Hindi Solution) ( नाखून क्यों बढ़ते हैं)

Nakhun Kyon Badhate Hain
  • लेखक का नाम – हजारी प्रसाद द्विवेदी
  • जन्म – 1907 ई ०
  • जन्म स्थान – आरत दुबे का छपरा, बलिया (उत्तर प्रदेश)
  • आरंभिक शिक्षा – घर पर संस्कृत के माध्यम से
  • उच्च शिक्षा – काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
  • वहां इन्होंने ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की।
  • भाषा – संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बांग्ला आदि
  • इन्हें इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और आधुनिक ज्ञान – विज्ञान का व्यापक और महान ज्ञान था।
  • कबीर पर गहन अध्ययन करने के कारण 1949 ई० में लखनऊ विश्वविद्यालय में इन्हे Phd की मानक उपाधि से सम्मानित किया।
  • काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, शान्ति निकेतन विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं प्रशासनिक पदों पर रहें।
  • मृत्यु – 1979 ई० में दिल्ली में उनका निधन हुआ।
  • प्रमुख रचनाएँ –
    • निबंध संग्रह :– ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पलता’, ‘विचार और वितर्क’, ‘कुटज’, ‘विचार-प्रवाह’, ‘आलोक पर्व’, ‘प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद’
    • उपन्यास :– ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारुचंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’, ‘अनामदास का पोथा’
    • आलोचना-साहित्येतिहास :– ‘सूर साहित्य’, ‘कबीर’, ‘मध्यकालीन बोध का स्वरूप’, ‘नाथ संप्रदाय’, ‘कालिदास की लालित्य योजना’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’
    • ग्रंथ संपादन :– ‘संदेशरासक’, ‘पृथ्वीराजरासो’, ‘नाथ-सिद्धों की बानियाँ’
    • ‘विश्व भारती’ (शांति निकेतन) पत्रिका का संपादन
  • पुरस्कार एवं सम्मान –
    • साहित्य अकादमी पुरस्कार — ‘आलोकपर्व’ पर
    • ‘पद्मभूषण’ सम्मान — भारत सरकार द्वारा
    • डी० लिट्० की उपाधि — लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा।
  • यह पाठ हजारी पाठ ग्रंथावली से ली गई है।

प्रस्तुत पाठ ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं‘ हजारी प्रसाद द्विवेदी के द्वारा लिखा गया है। इसमें लेखक ने नाखूनों के माध्यम से मनुष्य के आदिम बर्बर प्रवृति का वर्णन करते हुए उसे बर्बरता त्यागकर मानवीय गुणों को अपनाने का संदेश दिया है। एक दिन लेखक की पुत्री ने प्रश्न पूछा कि नाखून क्यों बढ़ते हैं ? बालिका के इस प्रश्न से लेखक हतप्रभ हो गए। प्रतिक्रिया स्वरूप लेखक ने इस विषय पर मानव-सभ्यता के विकास पर अपना विचार प्रकट करते हुए आज से लाखों वर्ष पूर्व जब मनुष्य जंगली अवस्था में था, तब उसे अपनी रक्षा के लिए हथियारों की आवश्यकता थी।

इसके लिए मनुष्य ने अपनी नाखूनों को हथियार स्वरूप प्रयोग करने के लिए बढ़ाना शुरू किया, क्योंकि अपने प्रतिद्वन्द्वियों से जूझने के लिए नाखून ही उसके अस्त्र थे। इसके बाद पत्थर, पेड़ की डाल आदि का व्यवहार होने लगा। इस प्रकार जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया, मनुष्य अपने हथियारों में भी विकास करने लगा।

उसे इस बात पर हैरानी होती है कि आज मनुष्य नाखून न काटने पर अपने बच्चों को डाँटता है, किन्तु प्रकृति उसे फिर भी नाखून बढ़ाने को विवश करती है। मनुष्य को अब इससे कई गुना शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र मिल चूके हैं, इसी कारण मनुष्य अब नाखून नहीं चाहता है। (Nakhun Kyon Badhate Hain, Nakhun Kyon Badhate Hain)

लेखक सोचता है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है ? मनुष्यता की ओर अथवा पशुता की ओर । अस्त्र-शस्त्र बढ़ाने की ओर अथवा अस्त्र-शस्त्र घटाने की ओर। आज के युग में नाखून पशुता के अवशेष हैं तथा अस्त्र-शस्त्र पशुता के निशानी है। (Nakhun Kyon Badhate Hain, Nakhun Kyon Badhate Hain)

इसी प्रकार भाषा में विभिन्न शब्द विभिन्न रूपों के प्रतिक हैं। जैसे- इंडिपेंडेंस शब्द का अर्थ होता है अन-धीनता या किसी की अधीनता की अभाव, किंतु इसका अर्थ हमने स्वाधीनता, स्वतंत्रता तथा स्वराज ग्रहण किया है।

यह सच है कि आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। उपकरण नए हो गए हैं, उलझनों की मात्रा भी बढ़ गई है, परंतु मूल समस्याएँ बहुत अधिक नहीं बदली है। लेकिन पुराने के मोह के बंधन में रहना भी सब समय जरूरी नहीं होता। इसलिए हमें भी नएपन को अपनाना चाहिए। लेकिन इसके साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नये की खोज में हम अपना सर्वस्व न खो दें। क्योंकि कालिदास ने कहा है कि ‘सब पुराने अच्छे नहीं होते और सब नए खराब नहीं होते।‘ अतएव दोनों को जाँचकर जो हितकर हो उसे ही स्वीकार करना चाहिए।

मनुष्य किस बात में पशु से भिन्न है और किस बात में एक ? आहार-निद्रा आदि की दृष्टि से मनुष्य तथा पशु में समानता है, फिर भी मनुष्य पशु से भिन्न है। मनुष्य में संयम, श्रद्धा, त्याग, तपस्या तथा दूसरे के सुख-दुःख के प्रति संवेदना का भाव है जो पशु में नहीं है। मनुष्य लड़ाई-झगड़ा को अपना आर्दश नहीं मानता है। वह क्रोधी एवं अविवेकी को बुरा समझता है।

लेखक सोचता है कि ऐसी स्थिति में मनुष्य को कैसे सुख मिलेगा, क्योंकि देश के नेता वस्तुओं के कमी के कारण उत्पादन बढ़ाने की सलाह देता है लेकिन बूढे़ आत्मावलोकन की ओर ध्यान दिलातें है। उनका कहना है कि प्रेम बड़ी चीझ है, जो हमारे भीतर है।

इस निबंध में लेखक ने मानवीता पर बल दिया है। महाविनाश से मुक्ति की ओर ध्यान खींचा है।

उत्तर – एक बार लेखक की छोटी लड़की ने उनसे यह प्रश्न कर दिया था कि नाखून क्यों बढ़ते हैं? उस समय से यह प्रश्न लेखक के लिए सोच का विषय बन गया।

उत्तर – बढ़ते नाखूनों द्वारा प्रकृति मां को जंगली दिनों की याद दिलाती है। प्राचीन काल में मानुषया जंगली था वाह अपने नकहूणों की सहायता से अपने जीवन की रक्षा कर्ता था। दंत होने के बावजुड़ भी नाखूं ही उसके असली हथियार थे। कालअंतर में मानवीय हथियारों ने आधुनिक रूप ले लिया। आज मानुषया अत्यधुनिक हथियारों पर भरोसा करके आगे की ओर चल पाड़ा है पर उसके नाखूं आज भी बढ़ रहे हैं और यह बढ़ते नाखूं मानुषया के जंगली दिनों की याद दिलाते रहेेंगे।

उत्तर – कुछ लाख वर्ष पहले मनुष्य जब जंगली था तो उसे नाखूनों की जरूरत पड़ती थी। क्योंकी नाखून आत्मरक्षा और भोजन के लिए अनिवार्य थे। आज के बदलते परिवेश में अस्त्र के रूप में नाखूनों की अवशयकता नहीं समझी जा रही है। समय के अनुसार मनुष्य ने अपने अस्त्रों में परिवर्तन कर लिया है।

उत्तर – मनुष्य निरंतर सभ्य होने के लिए प्रयत्नशील रहा है। प्रारंभ में मानव और पशु एक समन थे, नाखून अस्त्र था, लेकिन जैसे-जैसे मानवीय होता गया वैसे वैसे मनुष्य पशुओं से अलग होता गया। उनके जीवन के सभी क्षेत्र में नवीनता आती गई। वह पुरानी जीवन शैली को बदलता गया। जो नाखून उसके अस्त्र थे। उसे अब सौंदर्य का रूप देने लगा। नाखूनों को नया रूप देने के लिए मनुष्य हमेशा उसको काटता है। अब वह प्राचीन पशु तुल्य मानव को भूल जना चाहता है।

उत्तर – लेखक ने कहा है की पशु तुल्य मानव जब धीरे-धीरे विकसित हुआ तो सभ्य बनने के लिए उसने नाखूनों को काटना शुरू किया। उसकी यह प्रवृत्ति कलात्मक रूप लेने लगी । वात्स्यायन के कमसूत्र से पता चलता है की भारतवासियों में नाखूनों को सजाने की प्रवृत्ति आज से नहीं बालकी 2000 वर्ष पहले से ही शुरू हो चुकी थी। उसे काटने की कला काफी मनोरंजक बताई गई है। त्रिकोण, वर्तुलाकार, चंद्राकार, दंतुल आदि विभिन्न आकृतियों के नाखून उन दिनों बिलासी नागरिको के मनो विनोद का साधन था।

उत्तर – मानव शरीर में बहुत सी अभ्यास जन्म सहज वृतियाँ अंतर्निहित है दीर्घकालीन आवश्यकता बनकर मानव शरीर में अपस्थित रही सहज वृतियाँ ऐसे सहज गुण है जो अनजाने में अपने आप कम करती है। नाखूनों को बढ़ाना उनमें सहज स्मृतियों को कहा जता है। नख बढ़ाने की सजावत वृत्ति मनुष्य में निहित पशुत्व का प्रमण है। उन्हें काटने की जो प्रवृत्ति है वह पशुता है। लेकिन वह उसे बढ़ाना नहीं चाहता। यही करण है की मनुष्य पशुष्य पशुता के सूचक नाखूनों को काट देता है।

उत्तर – लेखक के मन में अंतर्द्वन्द्व भावना उभर रही है। वह इस सोच में पड़ गया है कि मनुष्य पशुता की ओर बढ़ रहा है या मानुषयता की ओर? लेखक इस प्रश्न का उत्तर नहीं खोज पता है, और अपनी इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए यह प्रश्न पाठकों के सामने उपस्थित करता है।

लेखक द्वारा उठाए गए इस विचारात्मक प्रश्न का अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि मनुष्य पशुता की ओर ही बढ़ रहा है। मनुष्यों ने बंदूक पिस्तौल बम से लेकर नए-नए महा विनास के शस्त्रों को रखने की जो प्रवृत्ति बढ़ाती जा रही है। वह स्पष्ट रूप से पशुता के ही निशानी है।

उत्तर – देश की आज़ादी के लिए प्रयुक्त इंडिपेंडेंस, स्वाधीनता तथा सेल्फ इंडिपेंडेंस शब्दों की अर्थमीमांसा लेखक करता है। लेखक का निष्कर्ष है की इंडिपेंडेंस शब्द का हिन्दी अर्थ होना चाहिए अनाधीनता अर्थात् किसी के अधीन नहीं, किंतु हमारे पूर्वाजों ने अपने स्व की अधीनता को सबसे बढ़कर मना इसलिए इंडिपेंडेंस का अर्थ अनाधीनत के बदले स्वतंत्रता, स्वराज्य , स्वाधीनता आदि रखा।

उत्तर –लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रूढ़िवादी विचारधारा और प्राचीन संवेदनाओं से हटकर जीवन यापन करने के प्रसंग में कहा है किर बंदरिया मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती। लेखक के कहने का अभिप्राय यह है कि मरे हुऎ बच्चे को गोद में दबाए रहने वाली बंदरिया मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती। मनुष्य एक बुद्धिजीवी वर्ग होने के नाते परिस्थिति के अनुसार साधनों का प्रयोग करना चाहिए।

उत्तर – लेखक द्विवेदी जी के अनुसार स्वाधीनता शब्द का अर्थ है। अपने अधीन रहना, क्योंकि यहां के लोगों ने अपनी आजादी के जितने भी नामकरण किए हैं, उनमें स्व का बंधन अवश्य है। जैसे स्वतंत्रता स्वराज स्वाधीनता।

उत्तर – निबंध में लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक ऐसे बूढ़े का जिक्र किया है जो अपनी पूरी जिंदगी का अनुभव कुछ शब्दों में व्यक्त कर मनुष्य को सावधान करता है। जो इस प्रकार है –बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो! हिंसा को मन से दूर करो, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक कल्याण के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोचो, काम करने की बात सोचो, लेखक की दृष्टि में यही कथन पूरी तरह सार्थक है।

उत्तर – प्राणी शास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि एक दिन मनुष्य की पूंछ की तरह उसके नाखून भी झड़ जाएंगे। इस बात के आधार पर लेखक के मन में यह आशा जागती है कि भविष्य में मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जाएगा।

उत्तर– मनुष्य मरणास्त्रों के संचयन से बाह्य उपकरणों के बाहुल्य से उस वस्तु को पा भी सकता है जिसे उसने बड़े आडंबर के साथ ‘सफलता’ नाम दे रखा है, परंतु मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है। अपने को सबके मंगल के लिए निः शेष भाव से देने में है। नाखूनों को काट देना उस स्व निर्धारित आत्मा बंधन का फल जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है।

उत्तर – प्रस्तुत व्याख्यये पंक्तियां हमारी पाठ्य पुस्तक गोधूलि भाग 2 में संकलित ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’, शीर्षक निबंध से ली गई है? लेखक की बेटी लेखक से पूछती है कि नाखून क्यों बढ़ते हैं?, तब लेखक के चिंतन करने लगते हैं और उनकी चिंतन से उभर कर आई यह पंक्ति है।

लेखक का मानना है कि नाखून ठीक वैसे ही बढ़ते हैं जैसे कोई अपराधी निर्लज्ज भाव से डंड स्वीकार के समय मौन तो लगा जाते हैं, लेकिन पुनः अपनी आदतों को शुरू कर देते हैं। यह नाखून ठीक उसी अपराधी की तरह है। यह धीरे धीरे बढ़ता है। काट दिए जाने पर पुनः बेशर्म की तरह बढ़ जाता है।

लेखक ने मनुष्य की पाश्विक प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। वह बार-बार सुधारने की कसमें खाता है, किंतु थोड़ी देर बाद वही कर्म दोहराने लगता है।

उत्तर –प्रस्तुत व्याख्यये पंक्तियां हमारी पाठ्य पुस्तक गोधूलि भाग 2 में संकलित ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ निबंध से ली गई है। जिसके रचनाकर हजारी प्रसाद द्विवेदी है। यह पंक्ति मनुष्य की बर्बरता से जुड़ा हुआ है।

कहने का अर्थ है कि बर्बरता कितनी भयंकर है कि वह अपने संहार में मनुष्य स्वयं लिप्त है। उदाहरण – हिरोशिमा पर बम गिरा। इससे कितनी जन–धन की हानि हुई? यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। आज भी उसकी स्मृति से मन सिहर उठता है। यह है मनुष्य की पाश्विक स्वरूप ।यही स्वरूप उसके नाखून याद दिला देते हैं। उसकी भयंकरता जिसे लेकर मनुष्य निराश हो जाता है।

लेखक की दृष्टि में मनुष्य के नाखून पशवी वृति के उदाहरण है। मनुष्य की मनुष्यता को जितनी बार काटने की कोशिश की जाए, वह उतनी बार एक नए रूप में उभर जाता है।

उत्तर – प्रस्तुत व्याख्यये पंक्तियां हमारी पाठ्य पुस्तक गोधूलि भाग 2 में संकलित ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं ’ शीर्षक निबंध से ली गई है। जिसके रचनाकर हजारी प्रसाद द्विवेदी है।

लेखक कहता है कि मनुष्य अब सभ्य और संवेदनशील हो गया है। बुद्धिजीवी हो गया है। वह नरसंहार का विसभ्य रुप देख चुका है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण हिरोशिमा का महाविनाश है। अतः उसके निजात पाने के लिए वह सदैव सचेत होकर फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहा है। वह अपने विध्वंसक रूप को छोड़कर सृजनात्मकता की ओर अग्रसर होना चाहता है।

मनुष्य की इसे विवेकशील चिंतन और दूरदर्शिता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए बताया है कि कमबख्त है नाखून बढ़े तो बढ़े। इससे चिंता करने की जरूरत नहीं है। अब मनुष्य सहज और सचेत है।

उत्तर – लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि में हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता यह है कि इसमें भारत में आई अनेक जातियों के लिए एक सामान्य धर्म खोज निकाला। यह कोई आसान काम नहीं था। भारतीय संस्कृति ने समस्त वर्णों और समस्त जातियों के लिए एक सामान्य आदर्श की स्थापना की और वह आदर्श था – अपने ही बंधन से अपने को बांधना। संयम, दूसरे के सुख-दुख के प्रति संवेदना, श्रद्धा, तप, त्याग आदि मनुष्य के स्वयं के उद्भक्ति बंधन है। यह वास्तव में मनुष्य का धर्म है। स्व का बंधन भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है।

उत्तर – ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित एक ललित निबंध है जिसमें निबंधकार ने अपना मानवतावादी दृष्टिकोण प्रकट किया है। इसमें निबंधकार ने बार-बार काटे जाने पर बढ़ जाने वाले नाखूनों के बहाने अत्यंत सहज शैली में सभ्यता और संस्कृति की विकास गाथा को उद्घाटित किया है।

नाखूनों का बढ़ना एक ओर मनुष्य की आदिम पाश्विक वृति और संघर्ष चेतना का प्रमाण है तो दूसरी ओर उन्हें बार-बार काटते रहना और उन्हें अलंकृत करते रहना मनुष्य के सौंदर्य बोध और संस्कृति चेतना को भी निरूपित करता है। नाखून बढ़ाना लाखों वर्ष पहले प्राचीन सभ्यता में देखा जाता है क्योंकि उस समय आदिमानव को इसकी आवश्यकता थी। मनुष्य नाखूनों से वे पशुओं को मारते और उन्हें भोजन के रूप में ग्रहण करते। धीरे-धीरे मनुष्य की सभ्यता का विकास में हुआ। नाखून के स्थान पर लोहे के अस्त्र शास्त्र मनुष्य प्रयोग में लाने लगा। अति आधुनिक सभ्यता में नाखून की काटने की परंपरा विकसित हुई। नाखून को काटने की बावजूद भी नाखून की पशुता उसके भीतर ही रह गई। आज मनुष्य अति आधुनिक हथियारों को बनाने में लगा है जो उसकी पशुता का प्रमाण है।

अतः निबंधकार में यह आशा जगती है की पूंछ की तरह मनुष्य के नाखून भी एक दिन झड़ जाएंगे और संभवत उसी दिन मनुष्य की पशुता भी समाप्त हो जाएगी तथा सफलता और चरितार्थता के मैत्रीभाव स्थापित होंगे।

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