भूगोल के पिता– हिकेटियस
इरैटोस्थनिज ने सर्वप्रथम ज्योग्राफिका शब्द का प्रयोग किया। युनानी विद्वान पाइथागोरस ने बताया कि पृथ्वी चपटी नहीं है।
भूगोल – भूगोल पृथ्वी का वर्णन है।
अर्थात्
ऐसा शास्त्र जिसमें पृथ्वी के ऊपरी स्वरूप और उसके प्राकृतिक विभागों जैसे- पहाड़, महादेश, देश, नगर, नदी, समुद्र, झील, वन आदि का अध्ययन करते हैं। भूगोल कहलाता है।
संसाधन का महत्व – उपयोग मे आनेवाली प्रत्येक वस्तुऐं संसाधन कहलाते हैं। भूमि, मृदा, जल और खनिज भौतिक संसाधन है तथा वनस्पति, वन्य-जीव तथा जलीय-जीव जैविक संसाधन हैं।
प्रसिद्ध भूगोलविद् जिम्मरमैन ने कहा था कि- ‘संसाधन होते नहीं, बनते हैं।’
संसाधन के प्रकारः–
उत्त्पति के आधार पर संसाधन के दो प्रकार होते हैं :
- जैव संसाधनः– ऐसे संसाधन जिसकी प्राप्ति जैव मंडल से होती हैं। उसे जैव संसाधन कहते हैं। जैसे- मनुष्य, वनस्पती, मत्स्य, पशुधन एवं अन्य प्राणी समुदाय।
- अजैव संसाधनः– निर्जीव वस्तुओं के समुह को अजैव संसाधन कहते हैं। जैसे- चट्टानें, धातु एवं खनिज आदि।
उपयोगिता के आधार पर संसाधन के दो प्रकार होते हैं–
- नवीकरणीय संसाधनः– वैसे संसाधन जिन्हें भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक प्रक्रिया द्वारा नवीकृत या पुनः प्राप्त किए जा सकते हैं। उसे नवीकरणीय संसाधन कहते हैं। जैसे- सौर-उर्जा, पवन उर्जा, जल-विद्युत, वन एवं वन्य प्राणी।
- अनवीकरणीय संसाधनः– ऐसे संसाधन जिन्हें उपयोग के पश्चात् पुनः प्राप्त नहीं कर सकते हैं, उसे अनवीकरणीय संसाधन कहते हैं। जैसे- कोयला, पेट्रोलियम आदि।
स्वामित्व के आधार पर संसाधन के चार प्रकार होते हैं–
- व्यक्तिगत संसाधन– ऐसे संसाधन जो किसी खास व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र मे होता हैं, उसे व्यक्तिगत संसाधन कहते हैं। जैसे- भूखंड, घर, बाग-बगिचा, तालाब, कुँआ इत्यादि।
- सामुदायिक संसाधन– ऐसे संसाधन किसी खास समुदाय के अधिकार क्षेत्र में होता है। उसे सामुदायिक संसाधन कहते हैं। जैसे- गाँव में चारण-भूमि, श्मशान, मंदिर या मस्जिद परिसर, समूदायिक भवन, तालाब, खेल के मैदान आदि।
- राष्ट्रीय संसाधन– देश या राष्ट्र के अंतर्गत सभी उपलब्ध संसाधन को राष्ट्रीय संसाधन कहते हैं। जैसे- सड़क, स्कूल, कॉलेज आदि।
- अंतर्राष्ट्रीय संसाधन– ऐसे संसाधन जिसका नियंत्रण अंतर्राष्ट्रीय संस्था करती है, उसे अंतर्राष्ट्रीय संसाधन कहते हैं। तटरेखा से 200km दूरी छोड़कर खुले महासागरीय संसाधन अंतर्राष्ट्रीय संसाधन होते हैं।
विकास के स्तर पर संसाधन चार प्रकार के होते हैं–
- संभावी संसाधनः– ऐेसे संसाधन जो किसी क्षेत्र विशेष में मौजूद होते हैं, जिसे उपयोग में लाए जाने की संभावना होती है। उसे संभावी संसाधन कहते हैं। जैसे- हिमालयी क्षेत्र के खनिज, जिनका उत्खनन अिधक गहराई मे होने के कारण दुर्गम एवं महँगा हैं। उसी प्रकार राजस्थान एवं गुजरात क्षेत्र में पवन और सौर्य ऊर्जा आदि।
- विकसित संसाधनः– ऐसे संसाधन जिसका सर्वेक्षण के पश्चात् उपयोग हेतु मात्रा एवं गुणवत्ता का निर्धारण हो चुका हैं, उसे विकसित संसाधन कहते हैं। जैसे- कोयला, पेट्रोलियम आदि।
- भंडार ससाधनः– ऐसे संसाधन पर्यावरण में उपलब्ध होते हैं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हैं। जिन्हें उच्च तकनीक से उपयोग में ला सकते हैं, उसे भंडार संसाधन कहते हैं। जैसे- जल, हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन का यौगिक है जिसमें ऊर्जा उत्पादन की असीम क्षमता छिपी हुई हैं। लेकिन उच्च तकनीक के अभाव में ऐसे संसाधनों का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।
- संचित कोष संसाधनः– ऐसे संसाधन भंडार संसाधन के ही अंश हैं, जिसे उपलब्ध तकनीक के आधार पर प्रयोग में लाया जा सकता हैं इनका तत्काल उपयोग प्रारंभ नही हुआ है। यह भविष्य की पूँजी है। जैसे- नदी जल भविष्य में जल विद्युत उत्पन्न करने में उपयुक्त हो सकते हैं।
संसाधन नियोजनः– संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग ही संसाधन नियोजन है। संसाधन नियोजन किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक होता है। भारत जैसे देश के लिए तो यह अनिवार्य है।
भारत में संसाधन नियोजनः– संसाधन-नियोजन एक जटिल प्रक्रिया है।
संसाधन नियोजन के सोपानों को निम्न रूप मेंं बाँटकर अध्ययन किया जाता है।
(क) देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों की पहचान कराने के लिए सर्वेक्षण कराना।
(ख) सर्वेक्षण के बाद मानचित्र तैयार करना एवं संसाधनों का गुणात्मक एवं मात्रात्मक आधार पर मापन या आकलन करना।
(ग) संसाधन-विकास योजनाओं को मूर्त्त-रूप देने के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी कौशल एवं संस्थागत, नियोजन की रूप रेखा तैयार करना।
(घ) राष्ट्रीय विकास योजना एवं संसाधन विकास योजनाओं के मध्य समन्वय स्थापित करना।
संसाधनों का संरक्षणः सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में संसाधनों की अहम भूमिका होती है। किंतु संसाधनों का अविवेकपूर्ण या अतिशय उपयोग विविध प्रकार के
सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म देते हैं। संसाधनों का नियोजित एवं विवेकपूर्ण उपयोग ही संसाधन संरक्षण कहलाता है।
प्राचीन काल से ही संसाधनों का संरक्षण, समाज-सुधारकों, नेताओं, चिंतकों एवं पर्यावरणविदों के लिए एक चिन्तनीय ज्वलंत विषय रहा है। इस संदर्भ में महान् दार्शनिक एवं चिंतक महात्मा गाँधी के विचार प्रासांगिक है-
“हमारे पास पेट भरने के लिए बहुत कुछ हैं, लेकिन पेटी भरने के लिए नहीं।”
मेधा पाटेकर का ‘नर्मदा बचाओ अभियान‘, सुन्दर लाल बहुगुणा का ‘चिपको आंदोलन‘, एवं संदीप पांडेय द्वारा वर्षा जल संचय कर कृषित भूमि का विस्तार, संसाधन संरक्षण की दिशा में अत्यंत सराहनीय कदम है।
सतत् विकास की अवधारणाः संसाधन मनुष्य के जीवन का आधार है। जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए ससाधानों के सतत् विकास की अवधारणा अत्यावश्यक है। ‘संसाधन प्रकृति के द्वारा उपहार है’ की अवधारणा के कारण मानव ने इनका अंधा-धुंध दोहन किया, जिसके कारण पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न हो गई हैं।
स्वार्थ के वशीभूत होकर संसाधनों का विवेकहीन दोहन किया गया।
संसाधनों के विवेकहीन दोहन से भूमंडलीय-तापन, ओजोन क्षय, पर्यावरण-प्रदूषण, मृदा-क्षरण, भूमि-विस्थापन, अम्लीय-वर्षा, असमय ऋतु-परिवर्तन जैसी संकट पृथ्वी पर आ गई है। अगर ऐसे ही संसाधनों का दोहन चलता रहा, तो पृथ्वी का जैव संसार विनाश हो जाएगा।
जीवन लौटाने के लिए संसाधनों का नियोजित उपयोग होना आवश्यक है। इससे पर्यावरण को बिना क्षति पहुंचायें, भविष्य की आवश्यकताओं के मद्देनजर, वर्त्तमान विकास को कायम रखा जा सकता है। ऐसी धारणा ही सतत् विकास कही जाती है। इससे वर्त्तमान विकास के साथ भविष्य भी सुरक्षित रह सकता है।
स्मरणीय तथ्य: |
प्रथम पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन 3-14 जून 1992 को रियो-डी-जेनेरो में किया गया। जिसमें विकसित एवं विकासशील देशों के लगभग 178 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग, वन-संरक्षण, जैव-विविधता, कार्यक्रम 21, एवं रियो घोषणा-पत्र पर समझौता किए गए। |
कार्यक्रम 21 (Agenda 21):- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास (UNCED) के तत्वाधान में रियो-डी-जेनेरो सम्मेलन में राष्ट्राध्यक्षों द्वारा स्वीकृत 800 पृष्ठीय एक घोषणा-पत्र है जिसमें सतत् विकास को प्राप्त करने के लिए 21 कार्यक्रम को स्वीकृत किया गया इस एजेंडा-21 को गठित करने हेतु सभी देशों को निर्देश दिये गये तथा इस पर होने वाले खर्च के वहन हेतु ‘विश्व पर्यावरण कोष’ की स्थापना की गई है। |
द्वितीय पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन 23-27 जून 1997 को न्यूयार्क में प्रथम सम्मेलन के मूल्यांकन के लिए 5 वर्ष बाद आयोजित हुआ। इसे प्लस-5 सम्मेलन भी कहा जाता है। |
क्योटो सम्मेलन-दिसम्बर 1997 में पृथ्वी को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए जापान के क्योटो में सम्मेलन आयोजित हुए जिसमें 159 देशों ने भाग लिया। इसमें 6 गैसों (CO₂, मिथेन, N₂O, HFC, पर फ्लूरो कार्बन, सल्फर हेक्सा क्लोराईड) को ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेवार-मानते हुए इसके उपयोग में कटौती पर सहमति बनी। जहाँ यूरोपीय संघ ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 8% संयुक्त राज्य अमेरिका 7% एवं जापान 6% की कटौती पर सहमत हुए। इसे मांट्रियला समझौता 1987 का विस्तार भी माना जा सकता है। इस सम्मेलन को विश्व पर्यावरण सम्मेलन या ग्रीन हाउस सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। |
तृतीय पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन 10 वर्ष बाद 26 अगस्त-4 सितम्बर 2002 में जॉहासबर्ग में आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में पर्यावरण संबंधी 150 धाराओं पर विश्वस्तरीय सहमति तैयार करना था पर इस सम्मेलन का कोई परिणाम नहीं निकल सका। इस सम्मेलन में विश्व के विभिन्न देशों से लगभग 2000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। |
SOME IMPORTANT NOTES
- प्रकृति के द्वारा प्रदान किए गये सभी पदार्थ या वस्तएँ जो मनुष्य के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सुख-सुविधा प्रदान करने के लिए उपयोगी होते हैं, उन्हें संसाधन कहा जाता है।
- प्रकृति द्वारा प्रदान किए गये संसाधन विभिन्न प्रकार के होते हैं। इन संसाधनों का बहुत अधिक महत्व है।
- मनुष्य भी एक संसाधन के रूप में है, मनुष्य का शरीर स्वयं सबसे बड़ा संसाधन है, क्योंकि इससे जीवन के विभिन्न कार्य किए जाते हैं।।
- मनुष्य सभी प्रकार के संसाधनों के निर्माता के रूप में माना जाता है।
- मानव की परिसंपत्ति बनने वाली सभी वस्तुएँ तथा मानव स्वयं भी संसाधन के अन्तर्गत आते हैं।
- मनुष्य की इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले सभी पदार्थ संसाधन कहलाते हैं, मनुष्य अपने जीवन को सुखी बनाने तथा अपने आर्थिक विकास के लिए जिन वस्तुओं का उपयोग करता है, उनका निर्माण कुछ मूलभूत पदार्थों से होता है। इन मूलभूत पदार्थों को ही संसाधन कहा जाता है।
- संसाधन के दो वर्ग हैं—प्राकृतिक संसाधन और मानव संसाधन।
- भूमि, जल, वायु, वन, पशु तथा खनिज पदार्थ इत्यादि प्राकृतिक संसाधन हैं। साथ ही मनुष्य स्वयं अपनी कार्य-क्षमता, कुशलता तथा तकनीकी जानकारी इत्यादि के कारण संसाधन है।
- जीव-मण्डल में मौजूद और इससे प्राप्त होने वाले विभिन्न प्रकार के जीव जैसे पेड़-पौधे, पक्षी तथा मछलियाँ इत्यादि जैविक संसाधन हैं। वातावरण में उपस्थित सभी प्रकार के निर्जीव पदार्थ जैसे-खनिज, चट्टानें, पर्वत, नदियाँ तथा मिट्टी इत्यादि अजैविक संसाधन कहलाते हैं।
- वातावरण में उपलब्ध सूर्य का प्रकाश, वायु, तालाब, झीलें, नदियाँ, समुद्र, पेड़-पौधे तथा मछलियाँ इत्यादि नवीकरणीय संसाधन कहलाते हैं।
- ऐसे संसाधन जिनका संचित भण्डार सीमित है तथा इन्हें अल्पकाल में कृत्रिम रूप से पुनः बनाना असंभव है, तो ऐसे संसाधनों को अनवीकरणीय संसाधन कहा जाता है, ऐसे संसाधनों के एक बार समाप्त हो जाने के बाद पुनः इन्हें प्राप्त करना संभव नहीं है। धात्विक पदार्थ अनवीकरणीय संसाधन हैं, जैसे-कोयला, लोहा, ताँबा तथा पेट्रोलियम इत्यादि।
- कृषि भूमि, मकान, मोटरकार, मोटर साइकिल तथा मोबाइल इत्यादि निजी संसाधन हैं।
- सामुदायिक संसाधन वे संसाधन हैं जिनका उपयोग समुदाय, गाँव तथा नगर के सभी लोगों के लिए उपलब्ध रहता है, जैसे—चारागाह, खेल का मैदान, विद्यालय, पर्यटन स्थल तथा पंचायत भवन इत्यादि सामुदायिक संसाधन हैं।
- ऐसे सभी संसाधन जिनका उपयोग किया जा सके, भले ही उचित तकनीक, अर्थाभाव या . अन्य किसी कारण से उनका उपयोग नहीं होता हो, संभाव्य संसाधन कहे जाते हैं।
- जिन संसाधनों को ढूंढकर उनका उपयोग किया जाता है, उन्हें ज्ञात संसाधन कहते हैं।
- जिन संसाधनों का भण्डार पृथ्वी के अन्दर रहता है जिन्हें आधुनिक तकनीक के आधार पर खोदकर निकाला जाता है उन्हें भण्डारित संसाधन कहते हैं।
- कुछ संसाधन जिनके उपयोग करने की तकनीक ज्ञात हो परन्तु और सस्ती तकनीक के अभाव अथवा अन्य कारणों से उनका उपयोग वर्तमान में न होता हो तथा भविष्य में उपयोग करना संभव हों उन्हें संचित संसाधन कहते हैं।
- संसाधन का महत्व तभी तक है जबतक इसका समुचित और व्यापक रूप से उपयोग संभव होता है।
- संसाधनों के उपयोग के सिलसिले में समय-समय पर विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास किए गये हैं। इन प्रयासों के चलते विश्व में संसाधनों के समुचित उपयोग करने की नयी जागृति उत्पन्न हुयी है।
- संसाधन सीमित हैं और उनका वितरण असमान है। अतः उनके समुचित उपयोग के लिए नियोजन आवश्यक है। नियोजन एक तकनीक है, बुद्धि-विवेक का काम है।
- संसाधन नियोजन की तीन अवस्थाएँ हैं-प्रारंभिक तैयारी, मूल्यांकन और अधिकाधिक उपयोग में लाने की योजना।
- मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों की सृष्टि नहीं कर सकता है इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि उनका उपयोग नियोजित रूप में होना चाहिए जिससे भविष्य में भी सतत उपयोग के लिए मिलती रहे है।
- संसाधनों का उपयोग इस तरह होना चाहिए कि पूरे क्षेत्र का संतुलित विकास हो सके।
- संसाधनों के संरक्षण का अर्थ संसाधनों का अधिक-से-अधिक मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिक-से-अधिक उपयोग करना है।
- प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता समझते हुये हम लोगों को इनके नियोजन पर ध्यान देना चाहिए।
- भारत के विकास के लिए संसाधनों का नियोजन समुचित रूप से करना चाहिए, तभी देश का आर्थिक विकास हो सकता है।
- संसाधनों का योजनाबद्ध, समुचित और विवेकपूर्ण उपयोग ही उनका संरक्षण कहलाता है।
- प्राकृतिक संसाधनों का योजनाबद्ध और विवेकपूर्ण उपयोग करने से उनसे अधिक दिनों तक लाभ उठाया जा सकता है और वे भविष्य के लिए संरक्षित रह.सकते हैं।
- प्रकृति की वस्तुओं का अधिक-से-अधिक उपयोग करने के लिए नियोजन की आवश्यकता है। संसाधनों का मूल्यांकन उपयोग और संरक्षण योजनाबद्ध तरीके से करना आवश्यक है। सतत पोषणीय विकास एक ऐसा विकास है जिसमें भविष्य में आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकता की पूर्ति को बिना प्रभावित किए हुए वर्तमान पीढ़ी अपनी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
- भारत और विशेष रूप से बिहार में सतत पोषणीय विकास की अवधारणा को अवश्य अपनाना चाहिए तभी अर्थव्यवस्था का समुचित विकास हो सकता है।
- वृक्षा रोपण महत्वपूर्ण है। वृक्ष के पियों से प्राप्त ह्युमस मृदा की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं।
बिहार बोर्ड की किताब के प्रश्न
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1. कोयला किस प्रकार का संसाधन है ?
(क) अनवीकरणीय
(ख) नवीकरणीय
(ग)जैव
(घ) अजैव
उत्तर- (क) अनवीकरणीय
प्रश्न 2. सौर ऊर्जा निम्नलिखित में से कौन-सा संसाधन है
(क) मानवकृत
(ख) पुनः पूर्तियोग्य
(ग) अजैव
(घ) अचक्रीय
उत्तर- (ख) पुनः पूर्तियोग्य
प्रश्न 3. तट रेखा से कितने किमी. क्षेत्र सीमा अपवर्तक आर्थिक क्षेत्र कहलाते हैं ?
(क) 100 NM
(ख) 200 NM
(ग) 150 NM
(घ) 250 NM
उत्तर- (ख) 200 NM
प्रश्न 4. डाकू की अर्थव्यवस्था का संबंध है
(क) संसाधन संग्रहण से
(ख) संसाधन के विदोहण से
(ग) संसाधन के नियोजित दोहन से
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर- (ख) संसाधन के विदोहण से
प्रश्न 5. समुद्री क्षेत्र में राजनैतिक सीमा के कितने किमी. तक राष्ट्रीय सम्पदा निहित है
(क) 10.2 किमी.
(ख) 15.5 किमी.
(ग) 12.2 किमी.
(घ) 19.2 किमी.
उत्तर (ग) 19.2 किमी.
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. संसाधन को परिभाषित कीजिए।
उत्तर- सामान्य तौर मानवीय उपयोग में आनेवाली सभी वस्तुएँ संसाधन कहलाती हैं। जैसे भूमि, मृदा, जल, वायु, खनिज, जीव, प्रकाश इत्यादि। वर्तमान परिवेश में सेवाओं को भी संसाधन माना गया है। जैसे-गायक, कवि, चित्रकार इत्यादि की सेवा। वस्तुतः संसाधन का अर्थ बहुत ही व्यापक है। प्रसिद्ध भूगोलविद ‘जिम्मरमैन’ के अनुसा -“संसाधन होते नहीं, बनते हैं।
प्रश्न 2. संभावी एवं संचित कोष संसाधन में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर- संभावी संसाधन – ऐसे संसाधन जो किसी क्षेत्र विशेष में मौजूद होते हैं, जिसे उपयोग में लाये जाने की संभावना रहती है। जिसका उपयोग अभी तक नहीं किया गया हो। जैसे-हिमालयी क्षेत्र का खनिज, अधिक गहराई में होने के कारण दुर्गम है।
संचित कोष – संसाधन वास्तव में ऐसे संसाधन भंडार के ही अंश हैं जिसे उपलब्ध तकनीक के आधार पर प्रयोग में लाया जा सकता है। किन्तु इनका
उपयोग प्रारंभ नहीं हुआ है। जैसे नदी का जलं भविष्य में जल विद्युत के रूप में उपयोग हो सकता है।
प्रश्न 3. संसाधन संरक्षण की उपयोगिता को लिखिए।
उत्तर – सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में संसाधन की अहम भूमिका होती है। किन्तु संसाधनों का अविवेकपूर्ण या अतिशय उपयोग; विविध सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म देता है। इन समस्याओं के समाधान हेतु विभिन्न स्तरों पर संरक्षण की आवश्यकता होती है।
प्रश्न 4. संसाधन-निर्माण में तकनीक की क्या भूमिका है, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – संसाधन-निर्माण में तकनीक की भूमिका अत्यंत ही महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि अनेक प्रकृति-प्रदत्त वस्तुएँ तब तक संसाधन का रूप नहीं लेती जबतक कि किसी विशेष तकनीक द्वारा उन्हें उपयोगी नहीं बनाया जाता। जैसे-नदियों के बहते जल से पनबिजली उत्पन्न करना, बहती हुई वायु से पवन ऊर्जा उत्पन्न करना, भूगर्भ में उपस्थित खनिज अयस्कों का शोधन कर उपयोगी बनाना, इन सभी में अलग-अलग तकनीकों की आवश्यकता होती है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. संसाधन के विकास में ‘सतत–विकास की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
उत्तर– संसाधन मनुष्य के जीविका का आधार है। जीवन की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए संसाधनों के सतत् विकास की अवधारणा अत्यावश्यक है। ‘संसाधन प्रकृति-प्रदत्त उपहार है।’ की अवधारणा के कारण मानव ने इनका अंधाधुंध दोहन किया जिसके कारण पर्यावरणीय समस्याएँ भी उत्पन्न हो गयी हैं।
व्यक्ति का लालच लिप्सा ने संसाधनों का तीव्रतम दोहन कर संसाधनों के भण्डार में चिंतनीय हास ला दिया है। संसाधनों का केन्द्रीकरण खास लोगों के हाथों में आने से समाज दो स्पष्ट भागों में (सम्पन्न और विपन्न) बँट गया है।
संपन्न लोगों द्वारा स्वार्थ के वशीभूत होकर संसाधनों का विवेकहीन दोहन किया गया जिससे विश्व पारिस्थितिकी में घोर संकट की स्थिति उत्पन्न हो गयी। जैसे भूमंडलीय तापन, ओजोन अवक्षय, पर्यावरण प्रदूषण, अम्ल वर्षा इत्यादि।
उपर्युक्त परिस्थितियों से निजात पाने, विश्व-शांति के साथ जैव जगत् को गुणवत्तापूर्ण जीवन लौटाने के लिए सर्वप्रथम समाज में संसाधनों का न्याय संगत बँटवारा अपरिहार्य है अर्थात् संसाधनों का नियोजित उपयोग हो। इससे पर्यावरण को बिना क्षति पहुँचाये, भविष्य की आवश्यकताओं के मद्देनजर, वर्तमान विकास को कायम रखा जा सकता है। ऐसी अवधारणा सतत विकास कही जाती है जिसमें वर्तमान के विकास के साथ भविष्य सुरक्षित रह सकता है।
प्रश्न 2. स्वामित्व के आधार पर संसाधन के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- स्वामित्व के आधार पर संसाधन चार प्रकार के होते हैं
- व्यक्तिगत संसाधन – ऐसे संसाधन किसी खास व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में होते हैं जिसके बदले में वे सरकार को लगान भी चुकाते हैं। जैसे- भूखंड, घर व अन्य जायदाद; ही संसाधन है, जिसपर लोगों का निजी स्वामित्व है। बाग-बगीचा, तालाब, कुआँ इत्यादि भी ऐसे ही संसाधन हैं जिनपर व्यक्ति निजी स्वामित्व रखता है।
- सामुदायिक संसाधन – ऐसे संसाधन किसी खास समुदाय के आधिपत्य में होती हैं जिनका उपयोग समूह के लिए सुलभ होता है। गाँवों में चारण-भूमि, श्मशान, मंदिर या मस्जिद परिसर, सामुदायिक भवन, तालाब आदि। नगरीय क्षेत्र में इस प्रकार के संसाधन सार्वजनिक पार्क, पिकनिक स्थल, खेल मैदान, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा एवं गिरजाघर के रूप में ये संसाधन सम्बन्धित समुदाय के लोगों के लिए सर्वसुलभ होते हैं।
- राष्ट्रीय संसाधन – कानूनी तौर पर देश या राष्ट्र के अन्तर्गत सभी उपलब्ध संसाधन राष्ट्रीय हैं। देश की सरकार को वैधानिक हक है कि वे व्यक्तिगत संसाधनों का अधिग्रहणं आम जनता के हित में कर सकती है।
- अंतर्राष्ट्रीय संसाधन – ऐसे संसाधनों का नियंत्रण अंतर्राष्ट्रीय संस्था करती है। तट-रेखा से 200N.M. दूरी छोड़कर खुले महासागरीय संसाधनों पर किसी देश का आधिपत्य नहीं होता, है। ऐसे संसाधन का उपयोग अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की सहमति से किसी राष्ट्र द्वारा किया जा सकता है।